________________
द्रव्यस्त्री]
... ५.,पन-लक्षणावती
समानुयोग
प्रन्यथा द्रव्यस्तवः पुष्पारिभिः समभ्यर्चनमिति . दब्बफासो। (षट्कं. ५, ३, १२)। २. एयपोग्गलद्रष्टव्यम् । (प्राव. भा. मलय. व. १६३, पृ.५६०)।. दम्वस्स सेसपोग्गलदम्वेहि संजोगो समवाप्रो वा १ पुष्प व गन्ध-धुपादि रूप पूजा की सामग्री को दवफासो णाम। अघवा जीवदम्बस्स पोग्गलदव्वस्स कारण में कार्य के उपचार से द्रव्यस्तव कहा जाता य जो एयत्तेण संबंधो सो दव्वफासो णाम । (धव. है। २ विष-शस्त्रादि जनित वेदना से रहित, अपने पु.१३, पृ. ११) । तेज से दसों दिशानों में बारह योजन प्रमाण क्षेत्र १एक द्रव्य अन्य द्रव्य का जो स्पर्श करता है, इसे से अन्धकार को दूर करने वाले, स्वस्तिक व अंकुश द्रव्यस्पर्श कहते हैं। २ एक पुद्गल द्रव्य का जो प्रादि चौसठ लक्षणों से परिपूर्ण, उत्तम संस्थान व शेष पुदगल द्रव्यों के साथ संयोग या समवायरूप संहनन से सहित, सुरभि गन्ध से तीनों लोकों को सम्बन्ध होता है इसका नाम द्रव्यस्पर्श है। अथवा सुगन्धित करने वाले, लाल नेत्र व कटाक्षरूप बाणों जीवद्रव्य का पुद्गल द्रव्य के साथ जो एकत्वरूप से के छोड़ने प्रावि रूप विकार से विरहित तथा सम्बन्ध होता है उसे भी द्रव्यस्पर्श कहा जाता है। प्रमाणयुक्त नख-रोमादि से संयुक्त ऐसे चौबीस द्रव्यागार-द्रव्यागारमगैः- द्रुम-दृषदादिभिःतीथंकरों के शरीरों का स्वरूपानसरणपूर्वक कीर्तन निर्वृत्तम् । (उत्तरा. नि. शा. व. १-१ पृ. १६)। फरना, इसका नाम द्रव्यस्तव है। ५ द्रव्यविषयक वृक्ष (लकड़ी) एवं पत्थर प्रादि से बनेए घर स्तवन-पुष्प एवं गंध-घुपादि-को कारण में कार्य को द्रव्यागार कहते हैं। का उपचार करके द्रव्यस्तव कहा जाता है। अधि- द्रव्याग्नि-दव्वाइसन्निकरिसा उप्पन्नो नाणि प्राय यह है कि पुष्पादि द्रव्य से पूजा करना, इसे चेव डहमाणो । दम्वम्गित्ति पवुच्चइ प्रादिमभावाइद्रव्यस्तव कहते हैं।
जुत्तो वि ।। (बृहत्क. २१४७) । द्रव्यस्त्री-१. स्त्रीवेदोदयसहितांगोपांगनामकर्मों- जो द्रव्य-प्ररणि काष्ठ व पुरुष-प्रयत्न-के दयात् निर्लोम मूख-स्तन योन्यादिलिंगलक्षितशरीरा सम्बन्ध से उत्पन्न होकर उन्हीं काष्ठ मादि द्रव्यों द्रव्यस्त्री। (गो. जी. म. प्र.टी. २७१) । २. स्त्री को जला देता है वह प्रादिम (प्रोदयिक) भाववेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्तांगोपांगमामकर्मो- अग्निनामकर्म के उदय व पारिणामिक भाव-से दयेन निर्लोममुख-स्तन-योनादिलिंगलक्षितशरीरयुक्तो संयुक्त होने पर भी द्रव्य अग्नि कहलाता है। जीवो भवप्रथमसमयमादि कृत्वा तद्भवचरमसमय- द्रव्याजीव- द्रव्याजीवो गुणादिवियुतो बुद्धिस्थापर्यतं द्रव्यस्त्री । (गो. जी. जी. प्र. टी. २७१)। पितः। (त. भा. सिद्ध. ५.१-५, पृ. ४६)। १ स्त्रीवेद के उदय के साथ अंगोपांगनामकर्म के गुणादि से रहित बुद्धि में स्थापित पदार्थ को द्रव्याउदय से जिसका शरीर रोमरहित मुख के साथ जीव कहते हैं। स्तन और योनि प्रादि चिह्नों से उपलक्षित हो उसे द्रव्याधःकर्म-जं दब्बं उदगाइसु छुडम हे वयइ जं द्रव्यस्त्री कहते हैं।
च भारेणं । सीईए रज्जूएण व प्रोयरण दहे. द्रव्यस्थान-द्रव्यस्थानं सर्वद्रव्याणां स्थानमाकाशः। कम्मं ।। (पिण्डनि. १८)। (उत्तरा. चू. १६. पृ. २४०)।
जो पाषाणादि पानी में छोड़ने पर भार के कारण सर्व द्रव्यों के स्थानभूत प्राकाश द्रव्य को द्रव्यस्थान नीचे जाते हैं तथा जो (पुरुषादि) नसैनी या रस्सी कहते हैं।
के प्राश्रय से क्रमश: नीचे जाते हैं उनकी नीचे द्रव्यस्नाम-जलेन देहदेशस्य क्षणं यच्छद्धिकार- जाने रूप इस क्रिया को द्रव्य-प्रधःकर्म कहा णम् । प्रायोऽन्यानुपरोघेन द्रव्यस्नानं तदुच्यते । जाता है। (अष्टक २-२)।
द्रव्याधिकरण-तत्र द्रव्याधिकरणं छेदन-भेदनादि अन्य के उपरोध के बिना जो जल से क्षण भर के शस्त्रं च दसविधम् । (त. भा. ६-८)। लिए शरीर देश को शुद्धि का कारण है उसे द्रव्य- छेदन-भेदने प्रादि के उपकरणों और दश प्रकार के स्नान कहते हैं।
शस्त्रों को द्रव्याधिकरण कहते हैं। द्रव्यस्पर्श-१. जं दवं दध्वेण पुसदि सो सम्बो द्रव्यानुयोग-१. जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org