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परावर्त दोष]
६७४, जैन-लक्षणावली [परिकर्ममिश्रद्रव्योपक्रम चानन्तोत्सपिण्यवसर्पिणीप्रमाणः, ते अनन्ताः अतीतः परिवर्तित कर साधुओं के लिए देता है, इससे पराकालः अनन्ता एवानागतः कालः। (प्राव. भा. वर्तित नाम का दोष उत्पन्न होता है। मलय. वृ. २००, पृ. ५९३)।
परिकर्म-१. परिकर्म द्रव्यस्य गुणविशेषपरि१परावर्त अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी प्रमाण णामकरणम् । (प्राव. नि. हरि. वृ. ७६, पृ. ५४; है जो द्रव्य-क्षेत्रादि के भेद से अनेक प्रकार का है। व्यव. भा. मलय. व. १, पृ. १; प्राव. नि. मलय.
दोष-बीहीकूरादीहिं य सालीकूरादियं तु व. ७६, प. १०)। २. परिकर्म नाम योग्यतापादजं गहिदं । दातुमिति संजदाणं परियट्ट होदि णा- नम्, तद्धेतुः शास्त्रमपि परिकर्म । (नन्दी. सू. मलय. यव्वं ।। (मूला. ६-१८)।
वृ. ५६) । ३. ततः परितः सर्वतः कर्माणि गणितसाधुनों को देने के लिए अपने ब्रीहि धान के भात करणसूत्राणि यस्मिन् तत्परिकर्म । (गो. जी. मं. प्रावि को दूसरे के लिए देकर बदले में शालि धान प्र. टी. ३६१) । ४. तत्रावस्थितस्यैव द्रव्यस्य गुणके भात प्रादि का लेना और साधुओं को देना, यह विशेषापादनं परिकर्म । (जम्बूद्वी. शा. वृ. पृ. ५)। संयतों (साधुनों) को परावर्त दोष का जनक दव्य के गणविशेष का जो परिणमन किया जाता होता है।
है, इसका नाम परिकर्म है। २ योग्यता को उत्पन्न परावर्तन-ग्रन्थस्य पुनः पुनरभ्यसनं परावर्तनम् ।
करना, इसे व इसके कारणभूत शास्त्र को भी परि(अनुयो. हरि. वृ. पृ. १०)।
कर्म कहा जाता है । ३ जिस ग्रन्थ में गणितविषयक ग्रन्थ के पुनः पुनः अभ्यास करने को परावर्तन
करणसूत्र उपलब्ध होते हैं वह परिकर्म कहलाता है। कहते हैं। परावर्तमान प्रकृति- १. विणिवारिय जा गच्छइ
परिकर्मकालोपक्रम-कालस्योपक्रमः परिकर्मणि
चन्द्रोपरागादेर्यथावस्थितमर्वागेव परिज्ञानकरणम् । बंधं उदयं च अन्नपगईए। साहु परियत्तमाणी x
(व्यव. मलय. वृ. १, पृ. २)। xx॥ (पंचसं. च. ३-४४) । २. विनिवार्य या
चन्द्रग्रहण प्रादि के नियत काल से पहले ही जान गच्छति बन्धमुदयं वा अन्यप्रकृतेः, सा हु परावर्त
लेने को परिकर्मविषयक कालोपक्रम कहते हैं। माना xxx विनिवार्य विनिवान्यस्याः प्रकृतेर्या स्वतो बन्धमुदयमुभयं वा याति सा परावर्त
वा यात मागवई परिकर्मक्षेत्रोपक्रम-तत्र परिकर्मणि क्षेत्रोपक्रमो माना। (पंचसं. च. स्वो. व. ३-४४) । ३..या नावा समुद्रस्योल्लंघनं हल-कुलिकादिभिर्वा इक्ष्वादिप्रकृतिरन्यस्याः प्रकृतेबन्धमदयं वा निवार्य स्वयं क्षेत्रस्य परिकर्मणा । (आव. नि. मलय. व. ७६, बन्धमदयं वा गच्छति सा ह निश्चितं परावर्तमाना। पृ. ६१)। (पंचसं. मलय. व. ३-४४)। ४. याः प्रकृतयोऽन्य- नावसे जो समुद्र का उल्लंघन किया जाता है इसे स्याः प्रकृतेर्बन्धमुदयमभयं वा विनिवार्य स्वकीयं परिकर्मविषयक क्षेत्रोपक्रम कहते हैं । अथवा हल बन्धमुदयमुभयं वा दर्शयन्ति ताः परावर्तमानाः। व कुलिक प्रादि से जो ईख प्रादि के खेत का परिकर्म
यत प्रत्यपाटि विनिवारियजा गच्छद (संस्कार) किया जाता है, इसे परिकर्मक्षेत्रोपक्रम बंधं उदयं च अन्नपगईए। सा ह परियत्तमाणी अणिवारंती अपरियत्ता ।। (शतक. दे. स्वो. वृ. १, परिकर्ममिश्रद्रव्योपक्रम-१. मिश्रद्रव्योपक्रमः
परिकर्मणि कटकादिभूषितपुरुषादिद्रव्यस्य गुणवि१ जो प्रकृति अन्य प्रकृति के बन्ध या उदय को शेषकरणम् । (व्यव. मलय. वृ. १, पृ. २)। रोक करके स्वयं ही बन्ध या उदय को प्राप्त होती २. मिश्रद्रव्योपक्रम: परिकर्मणि कटकादिविभूषितहै उसे परावर्तमान प्रकृति कहते हैं।
पुरुषादिद्रव्यस्य शिक्षापादनम् । (प्राव. नि. मलय. परावर्तित-देखो परावर्तदोष । यत्पुनः परावर्त्य वृ. ७६, पृ. ६१)। गृही यतिभ्यो दत्त तत् प्रा (परा)वर्तितम् । (गु. गु. १ कटक प्रादि प्राभूषणों से विभूषित पुरुष के षट्, स्वो. वृ. २०, पृ. ४८)।
गुणविशेष के करने को परिकर्मविषयक मिश्रद्रव्योगृहस्थ जो किसी एक भोज्य वस्तु से दूसरी को पक्रम कहते हैं ।
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