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पराजय ]
[परावर्त
वचन व काय से जो परित्याग किया जाता है वह परांगनात्यागव्रत कहलाता है ।
करण—दाता के पुण्यबन्ध का कारण होने से परोपकरण -- जानना चाहिए ।
पराजय — प्रसिद्धिः पराजयः । ( प्रमाणमी. २, १, परार्थप्रत्यक्ष- प्रत्यक्षपरिच्छिन्नार्थाभिधायि वचनं ३४) । परार्थप्रत्यक्षं परप्रत्यक्षहेतुत्वात् । ( प्र. न. त.
वादी अथवा प्रतिवादी के अपने पक्ष की सिद्धि नहीं ३-२४) ।
कर सकने का नाम पराजय है ।
६७३, जैन- लक्षणावली
परात्मा - देखो परमात्मा । परात्मा संसारिजीवेभ्यः उत्कृष्ट आत्मा । ( समाधित. टी. ६) । संसारी जीवों से उत्कृष्ट आत्मा को परात्मा या परमात्मा कहा जाता है । परानवकाङ्क्षक्रिया - तथा चानाद्रियमाणः परपावकाङ्क्षतीति परानवकाङ्क्षत्रिया । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६ ) ।
अनादरको प्राप्त होकर जो दूसरे को भी नहीं चाहता है, इसका नाम परानवकाङ्क्षक्रिया । परा प्राप्ति - णीसेसकम्मणासे अप्पसहावेण जा समुप्पत्ती । कम्मजभावखए विय सा वि य पत्ती परा होदि । ( कार्तिके. १६६) ।
सब कर्मों के नष्ट हो जाने पर जो शुद्ध श्रात्मस्वभाव की प्राप्ति होती है उसे परा प्राप्ति कहते हैं । श्रथवा कर्मजनित प्रौदयिकादि भावों का अभाव हो जाने पर जो प्राप्ति होती है उसे भी परा प्राप्ति कहा जाता है ।
परार्थ (श्रत ) - परं पुनः शब्दप्रयोगरूपं परविप्रतिपत्तिनिराकरण फलत्वात् परार्थम् । ( श्रन. घ. स्वो. टी. ३-५ ) ।
जिल शब्दप्रयोग का फल दूसरों के विरोध को दूर करना है वह परार्थश्रुत कहलाता है। इसे द्रव्यश्रुत भी कहा जाता है ।
परार्थ (गुण) - परार्थाः स्वात्मसम्बन्धिगुणाः शेषाः सुखादयः । (लाटीसं. ३-५३) ।
ज्ञान के अतिरिक्त जो शेष सुखादि गुण हैं वे परार्थ गुण माने जाते हैं ।
परार्थ करण - विहितानुष्ठानपरस्य तत्त्वतो योगशुद्धिसचिवस्य । भिक्षाटनादिसर्वं परार्थकरणं यतेज्ञयम् ॥ ( षोडशक. १३-५, पृ. ८७ ) । श्रागमोक्त अनुष्ठान का यथार्थतः पालन करते हुए जो साधु मन, वचन व काय की शुद्धि से सहित है उसके भिक्षा के लिये विचरण श्रादि सबको पार्थल. ८५
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प्रत्यक्ष से जाने हुए पदार्थ के वचन को परके प्रत्यक्ष में प्रत्यक्ष कहा जाता है । परार्थाधिगम- परार्थाधिगमः शब्दरूपः । ( सप्तभं. पृ. १ )
शब्दरूप ज्ञान को परार्थाधिगम कहते हैं । परार्थानुमान - १. स्वनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनं बुधैः । परार्थं मानमाख्यातं वाक्यं तदुपचारतः ॥ साध्याविनाभुवो हेतोर्वचो यत्प्रतिपादकम् । परार्थमनुमानं तत्पक्षादिवचनात्मकम् ॥ ( न्यायाव. १० व १३) । २. तत्- ( स्वार्थानुमान ) प्रतिपादकं वचो हेतुः परार्थमित्यर्थः । ( नन्दी. हरि वृ., पृ. ६२) । ३: परार्थं तु तदर्थ परामशिवचनाज्जातम् । तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात् । ( परीक्षा. ३, ५०-५१ ) । ४. पक्ष - हेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमुपचारात् । (प्र. न. त. ३-२३) । ५. तत्प्रतिपादकं वचो हेतुः परार्थम् । (उपवे. मु. वृ. ४८ ) । ६. यथोक्तसाधनाभिधानजः परार्थम् । ( प्रमाणमी. २, २, १) । ७. परोपदेशमपेक्ष्य साधनात्साध्यविज्ञानं तत्परार्थानुमानम् । प्रतिज्ञा- हेतुरूपपरोपदेशवशाच्छ्रोतुरुत्पन्नं साधनात्साध्य विज्ञानं परार्थानुमानमित्यर्थः । ( न्यायदी., पृ. ७५) । ८. यल्लक्षणो मतो हेतुः स्वार्थसंवित्त ये परम् । वाचाभिधीयमानस्तु परार्थं सानुमोच्यते । ( प्रमाल. ५५ ) । ६. पक्ष - हेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमुपचारात् । (षड्द. स. गुण. वृ. ५५, पृ. २१०) ।
१ अपने निश्चय के समान अन्य जनों के लिए निश्चय के उत्पादक वाक्य को उपचार से परार्थानुमान कहा जाता है । साध्य के अविनाभावी हेतु के प्रतिपादक वचन को परार्थानुमान कहते हैं जो पक्ष आदि के वचनस्वरूप है । परावर्त - १. परावर्तोऽनन्तोत्सर्पिण्य वस पिण्यात्मकः । स च द्रव्यादिभेदभिन्नः प्रवचनादवसेयः । ( श्राव. नि. हरि. बृ. ६६३ ) । २. परावर्तः पुद्गलपरावर्त:, स
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प्रतिपादन करनेवाले कारण होने से परार्थ
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