________________
कल्योजकल्योज राशि ]
चक्कवट्टीबल देउसमद्धचक्कीणं ॥ गब्भावदरण उच्छव तित्थयरादीसु पुष्णहेद् च। सोलहभावणकिरियातवाणि वण्णेदि ( स ) विसेसं ॥ वरचंदसूरगहणगहणक्खत्तादिचा रस उणाई । तेसि च फलाई पुणो वण्णेदि सुहासुहं जत्थ ।। ( अंगप. २, १०४ - ६, पृ. २६-३०० ) । ६. तीर्थंकर चक्रवर्ति - बलभद्र वासुदेवेन्द्रादीनां पुण्यव्याकीर्णं षड्विंशतिकोटिपदप्रमाणं कल्याणपूर्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. १ -२० ) ।
१ जिस पूर्वश्रुत में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारागण के संचार, उपपाद एवं विपरीत गति के फल तथा शकुन-अपशकुन के फल व तीर्थंकर, वलदेव, वासुदेव एवं चक्रवर्ती श्रादि के गर्भादि महाकल्याणकों की प्ररूपणा की जाती है, उसे कल्याणनामधेय पूर्व कहते हैं । कल्योजकल्योज राशि - जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं श्रवहीरमाणे एगपज्जवसिए जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा से तं कलियोगकलिप्रोगे । ( भगवती भा. ४, ३५, १, २, पृ. ३३९ ) । जिस राशि में चार का भाग देने पर एक संख्या शेष रहे उसे कल्पोज- कल्योज कहते हैं । जैसे—१३ (१३ ÷४=३१) । कल्योजकृतयुग्म – जेणं रासी चउक्कएणं श्रवहारेणं प्रवहीरमाणे चउपज्जवसिए जे णं तस्स रासिस अवहारसमया कलिप्रोगा से तं कलियोग
३२६, जैन-लक्षणावली
जुम्मे । ( भगवती ४, ३५, १, २, पृ. ३३९ ) । जिस राशि में चार का भाग देने पर चार शेष रहें अर्थात् शेष कुछ न रहे उसे कल्योजकृतयुग्म कहते हैं। जैसे १६ (१६ : ४=४)। कल्योज-त्रयोज - जे णं रासी चउक्कएणं श्रवहारेण श्रवहीरमाणे तिपज्जवसिए जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा से तं कलिनोगतेयोए । ( भगवती ४, ३५, १, २, पृ. ३३९ ) । जिस राशि में चार का भाग देने पर तीन शेष रहें, उसे कल्योज-त्रयोज कहते हैं । जैसे- १५ (१५÷ ४=३१) ।
कल्पोजद्वापरयुगम - जे णं रासी चउक्कएणं प्रवहारेण प्रवहीरमाणे दुपज्जवसिए जेणं तस्स रासि - स्स अवहारसमया कलियोगा, से तं कलियोगदावरजुम्मे । (भगवती ४, ३५, १, २, पृ. ३३९ ) ।
ल. ४२
Jain Education International
[कव्वाडभृतक
जिस राशि में चार का भाग देने पर दो शेष रहें उसे कल्योजद्वापरयुग्म कहते हैं। जैसे – १४ (१४ ÷४=३१)।
कवच - १. कवचे यथा कवचस्य शरशतनिपातदुःखनिवारणक्षमता एवमाचार्येण निर्यापकेन धर्मोपदेशश्चतुर्गतिपरिभ्रमणे दुःसहानि दुःखानि ननु कर्मपरवशतया भुक्तानि निष्फलानि ( ? ) । इदं पुनर्दु:खसहनं निर्जरार्थं प्रवर्त्यमानं सकलदुःखान्तं सुखमध्यतीन्द्रियमचलमनुपममव्याबाघात्मकं सम्पादयिष्यतीति क्रियमाणो दुःखनिवारणसामान्यात् कवचशब्देनोच्यते । (भ. प्रा. विजयो. ७० ) । २. कवचं धर्माद्युपदेशेन दुःखनिवारणम् । (अन. ध. स्वो. टी. ७-६८ ; भ. प्रा. मूला. टी. ७० ) ।
१ जिस प्रकार कवच सैकड़ों बाणों के लगने से उत्पन्न होने वाले दुःख के निवारण में समर्थ होता है उसी प्रकार निर्यापक प्राचार्य के द्वारा किया गया उपवेश चतुर्गति के दुःखों के जिन्हें कर्म के परवश होकर पूर्व में भोगा है— निवारण में समर्थ होता हुआ प्रतीन्द्रिय, शाश्वत, अनुपम एवं श्रव्याबाध सुख को उत्पन्न करने वाला है । इसीलिये दुःख के निवारण में कवच की समानता रखने के कारण प्राचार्य के द्वारा किये जाने वाले इस धर्मोपदेश को कवच शब्द से कहा जाता है। कवचमुद्रा - पुनर्मुष्टिबन्धं विधाय कनीयस्यंगुष्टी प्रसारयेदिति कवचमुद्रा । ( निर्वाणक. १६-४)। मुट्ठी बांध करके कनिष्ठा और अंगुष्ठ के फैलाने को कवचमुद्रा कहते हैं ।
1
कवल - किं कवलप्रमाणम् ? सालितंदुल सहस्से द्विद्दे जं कूपमाणं तं सव्वमेगो कवलो होदि । एसो पर्याsपुरिमस्स कवलों परुविदो । ( धव. पु. १३, पृ. ५६ ) ।
हजार शालि धान के चावलों के होने पर जो कूर (भात) का प्रमाण होता है वह सब पुरुष का प्राकृतिक एक ग्रास ( कौर) माना जाता है । कव्वाडभृतक कव्वाडभृतकः क्षितिखानकः श्रोडादिः, ग्रस्य स्वं कर्मायते द्विहस्ता त्रिहस्ता बा त्वया भूमिः खनितव्यैतावत्ते धनं दास्यामीति एवं नियम्यतेति । ( स्थाना. अभय वृ. ४, १, २७१, पृ. १६२) ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org