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घातसत्त्वस्थान] ४२५, जैन-लक्षणावली
[घोरतप ज्जदिभागो वा घादखुद्दाभवग्गहणं । (घव. पु. १४, मुणिददिव्ववयणस्स । उवसामदि जीवाणं एसा पृ. ३६२) ।
सप्पियासवी रिद्धी ।। (ति. प. ४, १०८६-८७)। निषेकक्षद्रभवग्रहण से प्रावली के असंख्यातवें भाग २. येषां पाणिपात्रगतमन्नं रूक्षमपि सीरसवीर्यकम जो जीवनकाल है उसे, अथवा निषेकक्षुद्रभव- विपाकानाप्नोति, सपिरिव वा येषां भाषितानि ग्रहण के संख्यात बहमागों को घातकर स्थापित प्राणिनां सतर्पकाणि भवन्ति ते सपिरास्रविणः । (त. संख्यातवें भाग को घातक्षद्रभवग्रहण कहते हैं। वा. ३, ३६, ३, पृ. २०४)। ३. येषां पाणिपात्रगतघातसत्त्वस्थान (धादसंतहारण)-घादसंतट्ठा- मन्नं रूक्षमपि घृत रसपरिणामि भवति, वचनानि णं णाम बंधसरिसअळंक-उव्वंकाणं विच्चाले हेट्ठिम- श्रोतृणां घृतपानस्वादं जनयन्ति, ते घृतस्राविणः । उव्वंकादो अणंतगुणं उवरिमअळंकादो अणंतगुण- (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६)। हीणं होदूण चेदि । (धव. पु. १२, पृ. १३०)। १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से हाथ पर रखा हुआ रूक्ष बन्धसदृश अष्टांक और ऊवंक के मध्य में अधस्तन भी पाहार प्रादि क्षण मात्र में घृत रसवाला हो ऊर्वक से अनन्तगणा और उपरिम अष्टांक से अन- जाता है, अथवा जिसके प्रभाव से साघु के मुख न्तगुणा हीन होकर जो सत्त्वस्थान अवस्थित होता से निकले हुए दिव्य वचन के सुनने से दुखी है उसे घातसत्त्वस्थान कहते हैं ।
जनों का दुःख प्रादि नष्ट हो जाता है उसे घातिकर्म-१. णाणावरण-दसणावरण-मोहणीय- घृतस्रावी या सपिस्रावी ऋद्धि कहते हैं। अंतराइयाणि घादिकम्माणि, केवलणाण-दंसण- घृताधब-घृतमिव वचनमाश्रवन्तीति घृताश्रवाः। सम्मत्त-चरित्त-वीरियाणमणेयभेयभिण्णाणं जीवगुणा- (प्राव. नि. मलय. वृ. ७५, पृ. ८०)। ण विरोहित्तणेण तेसिं घादिववदेसादो। (घव. पु. जिनके वचन घी के समान निकलते हैं वे घृताधव ७, पृ. ६२)। २. तत्र घातीनि चत्वारि कर्माण्य- कहलाते हैं। न्वर्थसंज्ञया । घातकत्वाद् गुणानां हि जीवस्यैवेति घोटकदोष-१. घोटकस्तुरगः, स यथा एक पादवास्मतिः ।। (पंचाध्या. २-६६८)।
मक्षिप्य विनम्य वा तिष्ठति तथा यः कायोत्सर्गेण १ क्रम से केवलज्ञान, केवलदर्शन, सम्यक्त्व व चारित्र तिष्ठति तस्य घोटकसदृशो घोटकदोषः। (मला.. तथा वीर्य रूप जीवगणों के घातक ज्ञानावरण, ७-१७१)। २. आकूञ्चितकपादस्य घोटकस्येव दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार कर्मों स्थानं घोटकदोषः। (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। को घातिकर्म कहा जाता है।
३. कायोत्सर्गमलोऽस्त्येकमुत्क्षिप्याघ्रि वराश्ववत् । घृणाक्षरन्याय-१. स घुणाक्षरन्यायो यन्मूर्खेष तिष्ठतोऽश्व: xxx॥ (अन. ध. ८-११२) । मंत्रपरिज्ञानम् । (नीतिवा. १०-६३, पृ. १३४)। १ घोड़े के समान एक पांव को उठाकर जो कायो२. घणः कृमिविशेषः, स शनैः काष्ठं भक्षयति, तेन त्सगं से स्थित होता है, यह घोटक नामक तस्य भक्ष्यमाणस्य विचित्रा रेखा भवन्ति; तासां का दोष है। मध्यात् काचिद्रेखा ऽक्षराकारा भवति । (नीतिवा. घोरगुण-धोरा रउद्दा गुणा जेसि ते घोरगुणा । टो. १०-६३)।
कधं चउरासीदिलक्खगणाणं घोरत्तं ? घोरकज्जकाघन के कोड़े द्वारा खाये जाने वाले काष्ठ में किसी रिसत्तिजणणादो। (धव. पु. ६, पृ.९३)। अक्षर के आकार के बन जाने के समान-जो प्रायः जो महर्षि घोर-भयानक कार्यों की करने वाली असम्भव है-यदि कदाचित् कोई कार्य सिद्ध हो शक्ति के जनक-गुणों से संयुक्त होते हैं वे घोरजाता है तो उसे 'घुणाक्षरन्याय से सिद्ध माना गुण ऋद्धि के धारक होते हैं। जाता है।
घोरतप-१. जलसूलप्पमुहाणं रोगेणच्चंतपीडिघतस्त्रावी--१. रिसिपाणितलणिखित्तं रुक्खाहा- अंगा वि । साहंति दुद्धरतवं जीए सा घोरतवरिद्धी॥ रादियं पि खणमेत्ते । पावेदि सप्पिरूवं जीए सा (ति. प. ४-१०५५) । २. वात-पित्त-श्लेष्मसप्पियासवी रिद्धी॥ अहवा दुक्खप्पमुहं सवणेण सन्निपातसमुद्भूतज्वर-कास-श्वासाक्षिशूल-कूष्ठ-प्रमे
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