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कर्तृत्व] ३१६, जैन-लक्षणावली
[कर्मक्षयसिद्ध स्वरूप इन तीन प्रकार के निमित्तभूत परिणाम- ६०६)। ४. कीरइ जो जिएणं मिच्छात्ताईहिं विकारों के विषय में, वस्तुतः शद्ध, निरंजन व चउगइगएणं । तेणिह भण्णइ कम्म अणाइयं तं पवावस्तुभत चैतन्य मात्र भाव की अपेक्षा एक होने पर हेणं ।। (कर्मवि. गा. २)। ५. क भी जो अशुद्ध, सांजन और अनेक भावरूपता को संयम-कषाय-योगकारणसंचितपुदगल प्रचयः । (प्रा. प्राप्त होकर तीन प्रकार का उपयोग होता है उसमें मी. वसु. व. ८)। ६. तत्र ज्ञानावरणाद्यष्टविधमाजिसको वह उपयोग (तत्वरूप प्रात्मा) करता है त्मनः पारतंत्र्यनिमित्तं कर्म । (लघीय. अभय. व. उसका वह कर्ता होता है। जिस भाव को प्रात्मा ७-४, पृ. ६८)। ७. क्रियते-मिथ्यात्वाविरतिकषायकरता है उसी भाव का वह कर्ता होता है। ज्ञानी योगानुगतेनात्मना निवर्त्यत इति कर्म । (उत्तरा. के ज्ञानमय भाव होता है और अज्ञानी के अज्ञानमय नि, शा. व. २-६६, पृ. ७२॥ ८. ज्ञानादिप भाव होता है।
विघातनादिसामर्थ्यसंयुत-ज्ञान - दर्शनादिपरिणतिविकर्तृत्व -१. कर्तृत्वमिति शुभाशुभकर्मणो निर्वर्त- घातसातासातानुभवादिसामोपेतं कर्म । (धर्मसं. कत्वं योगप्रयोगसामर्थ्यात् । (त. भा. सिद्ध. वृ. २, मलय. वृ. ६०६)। ७)। २. कर्तृता हि ज्ञान-चिकीर्षा-प्रयत्नाधारते- १ अंजनचूर्ण से परिपूर्ण डिब्बे के समान सूक्ष्म व ष्यते । (न्यायकु. १-३)।
स्थल प्रादि अनन्त पुद्गलों से परिपूर्ण लोक में जो १ योगप्रवृत्ति के वश शुभ व अशुभ कर्मों को उत्पन्न कर्मरूप परिणत होने योग्य नियत पुद्गल जीवपरिकरना, इसका नाम कर्तृत्व है। वह जीवका अनादि णाम के अनुसार बन्ध को प्राप्त होकर ज्ञान-दर्शन साधारण पारिणामिक भाव है। २ विवक्षित कार्य के घातक (ज्ञानावरण व दर्शनावरण) तथा सुखका ज्ञान, उसके करने की इच्छा और तद्रूप प्रयत्न दुःख, शुभ-अशुभ प्रायु, नाम, उच्च व नीच गोत्र इन तीनों की आधारभूता का नाम कर्तृता है। और अन्तराय रूप पुद्गलों को कर्म कहा जाता है। कर्म (कार्य)-१. कम्मं जमणायरिप्रोवएसिग्रं कर्म (क्रिया)-देशाद् देशान्तरप्राप्ति हेतुः परिसिप्पमन्नहाऽभिहियं । किसि-वाणिज्जाइयं घड- स्पन्दात्मकः परिणामोऽर्थस्य कर्म। (न्यायकु. ७, लोहाराइभेनं च ।। (प्राव. नि. ६२८)। २. इह पृ. २८१)। कर्म यदनाचार्योपदेशजं सातिशयमनन्यसाधारण एक देश से दूसरे देश की प्राप्ति में कारणभत पदार्थ गृह्यते । XXX तत्र भारवहन-कृषि-वाणिज्यादि- के परिस्पन्दात्मक परिणाम का नाम कर्म (क्रिया) कर्म । (प्राव. नि. हरि. वृ. ६२८)। १ जो कृषि व वाणिज्य आदि कार्य अनाचार्य-प्राचार्य कर्म (कारक)-xxx यः परिणामो भवेत्त से भिन्न व्यक्ति के द्वारा उपदिष्ट हो वह कर्म तत्कर्म । (नाटकस. ३-६)। कहलाता है। जैसे वोझा ढोना, एवं खेती व व्या- प्रात्मा का जो परिणाम होता है, उसे कर्म जानना पार प्रादि करना । जो इस सब कर्म में कुशल होता चाहिए। है उसे कर्मसिद्ध कहा जाता है।
कर्मकिल्विष-कर्मणा उक्तरूपेण किल्विषाः अधमाः कर्म (ज्ञानावररणादि)-१. अंजणचुण्णपुण्णसमु- कर्मकिल्विषाः । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ५, पृ. १८३)। गगोव्व सुहम-थूलादि-अणेगविहपरिणएहि अणंतेहिं प्राधाकर्म से किल्विष-निकृष्ट कार्य करने वाले
णिरंतर णिचिते लोगे परिच्छिण्णा एव जीवों को कर्मकिल्विष कहा जाता है। पोग्गला कम्मपरिणामणजोग्गा बंधमाणजीवपरि- कर्मक्षयसिद्ध-सो कम्मक्खयसिद्धो जो सव्वक्खीणणामपच्चएण बद्धा णाणादिलद्धिधातिणो सुह-दुक्खसु- कम्मसो ।। दीहकालरयं जं तु कम्मं सेसिअमट्ठहा । हासुहाउ-नाम-उच्चाणीयागोयंतरायपोग्गला कम्मति सिनं धंतं ति सिद्धस्स सिद्धत्तमुवजायइ ॥ (प्राव. वुच्चति । (कर्मप्र. चू. १, पृ. २) । २. प्रात्मपरि- नि. ६५२-५३) । णामेन योगभावलक्षणेन क्रियते इति कर्म । (त. वा. जो समस्त ही कर्मों का क्षय कर चुका है वह कर्म५, २४, ६, पृ. ४८८ पं. २१)। ३. नाणादिपरि- क्षयसिद्ध कहलाता है । जब जीव अन्नादिपरंपरा णतिविघायणादिसामत्थसंजुयं कम्म । (धर्मसं. से बांधे हए पाठ प्रकार के शेष कर्म-रज को ध्या
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