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पर्युषणकल्प ]
वाला है, वृष्टि के साथ ठण्डी वायु के चलने से आत्मा की विराधना सम्भव है, बावड़ी आदि में पतन भी हो सकता है, जल और कीचड़ से अच्छादित ठूंठ और कांटों आदि की बाधा भी हो सकती है । इसलिए वर्षाकाल में सामान्य से एक सौ बीस ( १२० ) दिन एक ही स्थान पर रहने का विधान है । यह उत्सर्ग मार्ग है। अपवाद रूप में श्रन्यान्य कारणों के उपस्थित होने पर उसमें होनाधिकता भी सम्भव है । यथा विशेष कारणवश श्राषाढ़ की पौर्णमासी में स्थित हुए साधु कार्तिक मास की पौर्णमासी के आगे भी तीस दिन तक एक ही स्थान में रह सकते हैं, वृष्टि की अधिकता, श्रागम के अभ्यास, शक्ति के प्रभाव और वैयावृत्य करने के प्रयोजन से अधिक भी रहा जा सकता है । यह उत्कृष्ट काल है । गच्छ के विनाश के कारणभूत मारी ( प्लेग आदि संक्रामक रोग), दुर्भिक्ष, गांव व जनपद के चलने तथा गच्छनाश के अन्य कारण के उपस्थित होने पर बीच में भी देशान्तर चले जाने का विधान है। कारण यह है कि ऐसे कारणों के उपस्थित होने पर वहां रहने में रत्नत्रय की विराधना हो सकती है। पौर्णमासी के बीत जाने पर प्रतिपदा श्रादि दिनों में गमन किया जा सकता है ।
पर्व ( तिथिविशेष ) - १. पर्वाणि चाष्टम्यादितिथयः पूरणात्पर्व धर्मोपचयहेतुत्वादिति । XXX श्राहारादिनिवृत्तिनिमित्तं धर्मपूरणं पर्वेति भावना । ( श्रा. प्र. टी. ३२१ ) । २. अट्ठमी चउद्दसी पुण्णिमा य तह मावसा हवइ पव्वं । मासम्मि पव्बछक्कं तिन्निय पव्वाइं पक्खम्मि । ( पाइयसद्द महण्णवो 'पव्व' शब्द ) |
१ ' पूरणात् पर्व' इस निरुक्ति के अनुसार धर्मसंचय की कारणभूत अष्टमी आदि विशेष तिथियों को पर्व कहते हैं । २ अष्टमी, चतुर्दशी पूर्णिमा और श्रमावस्या ये पर्व माने गये हैं, जो मास में छह और पक्ष में तीन होते हैं । पर्व ( कालमान) १. पुणो एदाणि ( ७०५६००००००००००) एंगपुव्ववस्साणि वेण लक्ख गुणिदेण चउरासीदिवग्गेण गुणिदे पव्वं होदि । ( धव. पु. १३, पृ. ३०० ) २. पूर्वां तु तदभ्य स्तमशीत्या चतुरग्रया ॥ तत्तद्गुणं च पूर्वाङ्गं पूर्व
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६६५, जैन - लक्षणावली
[ पर्व राहु भवति निश्चितम् । पू[प]र्वाङ्गं तद्गुणं तच्च पूर्व[ पर्व ] संज्ञं तु तद्गुणम् ।। ( ह. पु. ७, २४-२५) । ३. पूर्व चतुरशीतिघ्नं पूर्वाङ्गं [पर्वाङ्ग] परिभाष्यतेः । पूर्वाङ्गताडितं तत्तु पर्वाङ्गं पर्वमिष्यते ॥ ( म. पु. ३ - २१९ ) । ४. पूर्वं चतुरशीतिघ्नं पर्वाङ्गं परिभोष्यते । पूर्वाङ्गताडितं तत्तु पर्वाङ्गं पर्वमिष्यते ।। ( लोकवि. ५ - १२८ ) ।
१ एक पूर्व वर्षों (७०५६००००००००००) को एक लाख से गुणित चौरासी के वर्ग से गुणा करने पर पर्व का प्रमाण होता है । ३ पर्वांग को पूर्वाग से गुणित करने पर पर्व का प्रमाण प्राप्त होता है । पर्वतराजसदृश क्रोध - तत्र पर्वतराजिसदृशो नाम । यथा प्रयोग विस्रसा-मिश्रकाणामन्यतमेन हेतुना पर्वतराजिरुत्पन्ना नैव कदाचिदपि संरोहति, एवमिष्टवियोजनानिष्टयोजनाभिलषितालाभादीनामन्यतमेन हेतुना यस्योत्पन्नः क्रोधः श्रा मरणान्न व्ययं गच्छति जात्यन्तरानुवन्धी निरनुनयस्तीव्रानुशयोऽप्रत्यवमर्शश्च भवति सः पर्वतराजिसदृशः । ( त. भा. ८ - १०, पृ. १४४ ) ।
जिस प्रकार पुरुष के प्रयत्न, स्वभाव और उभय इनमें से किसी एक कारण से उत्पन्न हुई पर्वत की रेखा कभी नहीं भरती इसी प्रकार इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग और अभिलषित की अप्राप्ति आदि में से किसी एक निमित्त से जिसके क्रोध उत्पन्न हुआ है उसके वह मरण पर्यन्त नहीं छूटता, प्रत्युत परभव में भी साथ जाता है । इस प्रकार का जो क्रोध जन्मान्तर से सम्बन्ध रखता हुआ अनुनय और पश्चात्ताप से रहित होता है उसे पर्वतराजिसदृश कहा जाता है।
पर्व राहु - १. पुह पुह ससिबिंबाणि छम्मासेसु च पुण्णिमंतम्मि । छादंति पव्वराहू णियमेण गदिविसेसेहिं ॥ ( ति. प. ७-२१६ ) । २. तत्थ णं जे से पव्वराहू से जहण्णेणं छण्हं मासाणं, उक्कोसेणं बायालीसाए मासाणं चंदस्स अड़तालीसाए संवच्छ राणं सूरस्स । ( सूर्यप्र. २०-१०५, पृ. २८८ ) । ३. यस्तु पर्वणि - पौर्णमास्यां अमावस्यायां वा यथाक्रमं चन्द्रस्य सूर्यस्य वा उपरागं करोति स पर्वराहुः । XXX तत्र योऽसौ पर्वराहुः स जघन्येन षणां मासानामुपरि चन्द्रस्य सूर्यस्य चोपरागं करोति, उत्कर्षतो द्वाचत्वारिंशतो मासानामुपरि चन्द्रस्य
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