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क्षायिकी दृष्टि]
३८८, जैन-लक्षणावली [क्षायोपशमिक अवधि मान् जिनेन्द्र भक्तिप्रवधितविपुलभावनाविशेषसंभारो मानाध्यवसायः । (स. भा. सिद्ध. वृ. १८)। यत्र केवलिनः सन्ति भगवन्तस्तत्र मोहं क्षपयितुमार- अनन्तानुबन्धी, मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व, अप्रत्याभते, निष्ठापकः पुनश्चतसृष गतिषु भवति, स ख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, निराकृतमिथ्यात्व: क्षायिकसम्यग्दष्टिरित्याख्यायते। हास्यादि छह, वेद और संज्वलन; ये प्रकृतियां (त. वा. ४-४५)। २. दंसण-चरणगुणघाइ चत्तारि क्षायिकी श्रेणी हैं-इनके क्षयको गुणस्थानपंक्ति अणंताणुबंधिपयडीयो मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छ- क्षायिकी श्रेणी कही जाती है। इसका प्रारोहक तमिदि तिणि दंसणमोहणीयपयडीयो च, एदासि अविरत, देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्तसत्तण्हं निरवसेसक्खएण खइयसम्माइद्री उच्चइ। विरत; इनमें कोई भी एक विशद्धधमान अध्यवसाय (धव. पु. १, पृ. १७१); दंसणमोहणीयस्स (परिणाम) वाला हो सकता है। णिस्सेसविणासो खो णाम । तम्हि उप्पण्णजीव- क्षायोपशमिक प्रवधि-१. क्षायोपशमिकं तदापरिणामो लद्धी णाम, तीए लद्धीए खइयसम्माइट्ठी वरणीयानाम्-अवधिज्ञानावरणीयानां कर्मणाम् होदि । (धव. पु. ७, पृ. १०८) ।
उदीर्णानाम् उदयावलिकाप्राप्तानां क्षयेण प्रलयेन, १वेदकसम्यग्दृष्टि होकर प्रशम-संवेगादि से सहित
अनूदीर्णानां चात्मनि व्यवस्थितानामुपशमेन उदयहोते हुए जिनेन्द्रभक्ति के प्रभाव से जिसकी भाव- निरोधेन अवधिज्ञान मुत्पद्यते इति सम्बन्धः । यत नामों का समुदाय वृद्धिंगत हुआ है, ऐसा मनुष्य
एवमतः कर्मोदयानुदयविषयम् । अथवा येन तदाजहाँ केवली भगवान् विराजमान हैं वहां मोह ।
वरणीयानां कर्मणां उदीर्णानां क्षयेणानुदीर्णानामुप(दर्शनमोहनीय) की क्षपणा को प्रारम्भ करता है,
शमेनावधिज्ञानमुत्पद्यते तेन क्षायोपशमिकमित्युच्यत पर निष्ठापक (समापक) वह चारों गतियों में से
इति । (नन्दी. हरि. व. पु. ३०) । २. यदा प्रवधिकिसी भी गति में हो सकता है। इस प्रकार वह
ज्ञान-दर्शनावरणीयकर्मणां क्षयः परिशाट: संजातो मिथ्यात्व का निराकरण करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि
भवत्युदितानामनुदितानां चोपशमः उदयविधातहो जाता है।
लक्षणः संवृत्तो भवति स उपशमस्ताभ्यां क्षयोपश
माभ्यां कारणभूताभ्यां य उदेति स क्षयोपशमनिक्षायिको दृष्टि -देखो क्षायिक सम्यक्त्व । क्षयो
मित्तः। (त. भा. सिद्ध. वृ. १-२१)। ३. क्षायोपमिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व-सम्यक्त्वानां तिसृणां दर्शन
शमिकं येन कारणेन तदावरणीयाणाम् अवधिज्ञानामोहप्रकृतीनामनन्तानुबन्धिक्रोध-मान- माया-लोभा
वरणीयानां कर्मणामूदीर्णानां क्षयेण, अनुदीनाम् ख्यानां चतसणां चारित्रमोहप्रकृतीना चात्यन्तिको
उदयावलिकामप्राप्तानामुपशमेन विपाकोदयविष्कविश्लेषः, क्षयः प्रयोजनमस्या इति क्षायिकी।
म्भणलक्षणेनावधिज्ञानमुत्पद्यते, तेन कारणेन क्षायो(मन. ध. स्वो. टी. २-११४)।
पशमिकमित्युच्यते । (नन्दी. मलय. वृ. सू. ८, पृ. मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन तीन
७७)। ४. तथावधिज्ञानावरणीयस्य कर्मण उदयावर्शनमोहनीय प्रकृतियों तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध,
बलिकाप्रविष्टस्यांशस्य वेदनेन योऽपगमः स क्षयोमान, माया और लोभ इन चार चारित्रमोहनीय
उनु दयावस्थस्य विपाकोदयाविष्कम्भणम्पशमः, क्षयप्रकृतियों के प्रात्यन्तिक विनाश का नाम क्षय है,
इचोपशमश्च क्षयोपशमी, ताभ्यां निर्वृत्तः क्षायोपजिस दष्टि का प्रयोजन इस क्षय को उत्पन्न करना शमिकः। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३३-३१७, पृ. है, वह क्षायिकी दृष्टि कही जाती है।
५३९)। क्षायिकी श्रेणी-देखो क्षपकश्रेणी। १. क्षायिकी १ उदीर्ण-उदयावलि को प्राप्त-अवधिज्ञानातु श्रेणग्नन्नानुबन्धिनो मिथ्यात्व मिश्र-सम्यक्वानि वरण प्रकृतियों के क्षय से तथा अनदीण पात्मा अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानावरणे नपुंसक-स्त्रीवेदो में प्रवस्थित-उक्त प्रकृतियों के उपशम- उदयदास्यादिषटकं पंवेदः संज्वलनाश्च । (त. भा, हरि. निरोध-से जो असंख्यात भेदरूप अवधिज्ञान व सिद्ध. व. ९-१८)। २. प्रस्थाश्चारोहकः अविरत- उत्पन्न होता है. वह क्षायोपशमिक अवधिज्ञानदेश-प्रमताप्रमत्ता[त्त] विरतानामन्यतमो विशुद्ध-- कहलाता है।
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