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गृहन] ४१७, जन-लक्षणावली
[गृहमेधी ये स्युस्ते गूढब्रह्मचारिणः ॥ (धर्मसं. बा. ९-१६व फैला कर अवस्थित होने को गोलीन कहा जाता २०)। जो कुमार अवस्था में साधु वेष को धारण कर गृहकर्म-गिहाणि जिणघरादीणि, तेसु कदपडिपागम का अभ्यास करते हैं तथा पीछे बन्धु जनों ___ मानो गिहकम्म, हय-हत्थि-णर-वराहादिसरूवेण या राजादि के प्राग्रह से, दु:सह परीषहों से डरकर, घडिदघराणि गिहकम्ममिदि वृत्तं होदि। (धव. पु. अथवा स्वयं ही साधुवेष को छोड़कर गृहस्थाश्रम ६, पृ. २४६-५०); गोपुराणं सिहरेहितो अभेदेण को स्वीकार करते हैं उन्हें गूढ ब्रह्मचारी कहते हैं। इट्ट-पत्थरादीहि चिदपडिमानो गिहकम्माणि गाम । गृहन-तत्थ गृहणं किचि कहणं भण्णइ। (दशवै. (धव. पु. १३, प.१०); जिणहरादीणं चंदसाला. चू. पृ. २८५)।
दिसु अभेदेण घडिदपडिमानो गिहकम्माणि णाम । छिपाने या कुछ प्रकट न करने को गहन कहते हैं। (धव. पु. १३, पृ. २०२); मट्टियपिंडेण पासादेसु
घडिदरूवाणि गिहकम्माणि णाम। (धव. पु. १४ गृघ्रपृष्ठमरण-१. गेद्धपढें णाम मृतशरीरमनु
पृ. ६); गृह (गिह) कट्ठियाहि बद्धकुड्डा उवरि प्रविश्य गृध्रद्वाराऽऽत्मानं भक्षयति । (उत्तरा. चू.पू. वंसिकच्छण्णा गिहा णाम । (घव. पु. १४, पृ. १२६) । २. शस्त्रग्रहणेन यद् भवति तद् गिद्धपुट- असा मित्युच्यते । (भ. प्रा. विजयो. २५)। ३. गृधेः
। ३. गृधः जिनालय प्रादि को गृह कहा जाता है। उनमें जो स्पृष्टं स्पर्शनं यस्मिस्तद् गृध्रस्पृष्टम्, यदि वा गृध्रा- मतियों की रचना की जाती है, इसे गृहकर्म कहते णां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदरादि च तद्भक्ष्यकरि
हैं। अभिप्राय यह है कि घोड़ा, हाथी, मनुष्य और करभादिशरीरानुप्रवेशेन महासत्त्वस्य मुमूर्षोर्यस्मिस्तत् शकर प्रादि के प्राकार से जो गृह रचे जाते हैं, इसे गृदध्रपृष्ठम् । (स्थानां. अभय.व. २, ४, २०२), गहकर्म कहा जाता है। गद्धादिभक्खणं गद्धपट्ठमुव्वंधणादि वेहासं । एते ।
गहकल्प-अण्णो पाखंडिकम्रो गिहकप्पो गंथपरिदोन्नि वि मरणा कारणजाए अणुन्ना वा ॥ (स्थानां..
कलियो।। (भावसं. दे. १३२)।। अभय. व.पृ. ६४ उद्.)। ४. हस्तिकलेवरादिषु
अन्य परिग्रह संयुक्त वेष को गृहकल्प कहते हैं । यह प्रविश्य मरणं गृध्रपष्ठमरणम् । (भ. प्रा. मला.
कल्प पाखंडियों द्वारा किया गया है। २५, पृ.९०)। ५. गृध्राः प्रतीताः, ते पादिर्येषां
गृहत्यागक्रिया-गृहत्यागस्ततो ऽस्य स्याद् गृहवासाद् शकूनिका-शिवादीनां तैर्भक्षणम, गम्यमानत्वादात्म
विरज्यतः। योग्यं सूनं यथान्यायमनुशिष्य गृहोज्झनः, तदनिवारणादिना तदभक्ष्यकरि-करभादिशरी
नम् ॥ (म. पु. ३६-७६) । रानुप्रवेशेन च गृध्रादिभक्षणम्, xxx अधेः
गृहवास से विरक्त होकर योग्य पुत्र को न्यायानुसार स्पृष्टं स्पर्शनं यस्मिन् तद् गृध्रस्पृष्टम्, यदि वा गृध्रा
शिक्षा देते हुए गृह के परित्याग करने को गृहत्यागणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदरादि च मर्तुर्यस्मिन्
क्रिया कहते हैं। तद् गृध्रपृष्ठं, स ह्यलक्तकपूणिकापुटप्रदानेनात्गानं
गृहपति - गृहपति-वैदेहिको ग्रामकूटश्रेष्ठिनी । गृध्रादिभिः पृष्ठादो भक्षयतीति । (प्रव. सारो. वृ.
(नीतिवा. १४-११)।। १०१६, पृ. ३००)।
ग्रामकूट-गांव के मुखिया-को गृहपति कहा १ मृत शरीर में प्रविष्ट होकर गीष के द्वारा अपना
जाता है। भक्षण कराने से जो मरण होता है उसे गृध्रपृष्ठ- गहमेधी-१. त्रि-चतुःपञ्चभिर्युक्ता गुण-शिक्षाणुमरण कहा जाता है।
भिवतः। तत्त्वधी रुचिसम्पन्ना सावद्या गृहमेधिनः॥ गद्नोलोन (गिद्धोलोरण)-गिद्धोलीणं गृध्रस्यो- (भत्रचू. ७-२२)। २. पञ्चाणुव्रतसम्पन्ना गुण
र्ध्वगमनमिव बाहू प्रसार्यावस्थानम् । (भ. मा. शिक्षाव्रतोद्यताः। सम्यग्दर्शन-विज्ञाना सावद्या गृहविजयो. व मूला. टी. २२३)।
मेधिनः ।। (जीव. च. ७-१५) । गोध के ऊर्ध्वगमन के समान दोनों भुजानों को जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न होकर
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