________________
गुरुगति]
४१६, जैन-लक्षणावली
[गूढब्रह्मचारी ११. गृणाति यथावस्थितः प्रवचनार्थमिति गुरुः। २ यथायोग्य गुरु की वैयावृत्ति प्रादि करना, गुरु के (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १, पृ. ३)। १२. गृणन्ति प्रति निर्मल अन्तःकरण से सद्भावना रखना, गुरु यथावस्थितं शास्त्रार्थमिति गुरवो धर्मोपदेशदातारः। के द्वारा किये उपकार का सदा स्मरण रखना, (प्राव. मलय. वृ. १७६)। १३. अर्थाद् गुरुः उनकी प्राज्ञा का परिपालन करना तथा जिस स एवास्ति श्रेयोमार्गोपदेशकः। भगवांस्तु यत: कार्य के लिए कहा गया हो उसे यथार्थता से पूरा साक्षान्नेता मोक्षस्य वर्त्मनः ।। तेभ्योऽर्वागपि छन- करना; यह सव गुरुविनय कहलाती है। स्थरूपास्तद्रूपधारिणः । गुरवः स्युगु रोन्निान्यो- गुरूपास्ति-१. निर्व्याजया मनोवृत्त्या सानुवृत्त्या ऽवस्था विशेषभाक ॥ अस्त्यवस्थाविशेषोऽत्र युक्ति- गुरोर्मनः । प्रविश्य राजवच्छश्वद् विनयेनानुरजस्वानुभवागमात् । शेषसंसारिजौवेभ्यस्तेषामेवाति
__ येत् ॥ (सा. ध. २-४६)। २. क्रियते गन्धपुष्पाद्यैशायनात् ।। (लाटीसं. ४, १४२-४४; पंचाध्या. गरुपादाब्जपूजनम । पादसवाहनाय च गरूपास्तिर्भ२, ६२०-२२)।
वत्यसौ ॥ (भावसं. ५९८) । १ जो गुण अधोगमन का कारण होता है वह गुरु १ निश्छल मनोवृत्तिपूर्वक राजा के समान गुरु की कहलाता है। ३ जो शास्त्र के अर्थ को ग्रहण कराता
इच्छानुसार उसके मन को अनुरंजायमान करना, है---उसका व्याख्यान आदि करता है-उसे गरु
" इसका नाम गुरूपास्ति है। २ गन्ध-पुष्प आदि के कहा जाता है। ४ जो दीक्षा देता है, अध्यापन कराता
द्वारा गुरु के चरणों की पूजा के साथ पादमर्दन है, प्राचार्यादि वाचना को कर चका है. निर्दोष
आदि करना, इसे गरूपास्ति कहा जाता है। होकर अभ्यन्तर प्रयोजन को सिद्ध करने वाला होता है; तथा जो गुणों में अधिक होता हा मल, गुह्यभाषरण-तथा गुह्यं गृहनीयं न सर्वस्मै यत्कगण एवं गच्छ आदि से अलंकृत होता है उसे
। थनीयं राजादिकार्यसम्बद्धं तस्यानधिकृतेनैवाकारेजानना चाहिए।
ङ्गितादिमिर्जात्वा ऽन्यस्मै प्रकाशनं गह्यभाषणम् । गुरुगति-पाषाणायःस्फालानां गरुगतिः। (त. वा. यथा-एते हीदमिदं च राजविरुद्धादिकं मंत्रयन्ते । ५, २४, २१)।
अथवा गुह्यभाषणं पैशुन्यम् । यथा द्वयोः प्रीती पाषाण और लोहखण्डों की गति को गरुगति कहते
सत्यामेकस्याकारादिनोपलभ्याभिप्रायमितरस्य तथा
कथयति यथा प्रीतिः प्रणश्यति । (योगशा. स्वो. हैं। यह दस प्रकार की क्रियानों में से एक है।
विव. ३-६१, पृ. ५५१)। गुरुत्व-गुरुत्वं वज्रादपि गुरुतरशरीरतया इन्द्रादिभिरपि प्रकृष्टबलसहता। (योगशा. स्वो, विव. राजकार्यादि से सम्बद्ध जो बात सबसे नहीं कही १-८, पृ. ३७)।
जा सकती है ऐसी गुप्त बात को प्राकार व शारीजिस ऋद्धि के प्रभाव से वज्र से भी अतिशय
रिक चेष्टा श्रादि से जानकर दूसरे से कहना कि महान शरीर वाला होने से बलिष्ठ इन्द्रादि के द्वारा 'ये राजा के विरुद्ध इस इस प्रकार का विचार कर भी दुर्घर हो उसे गुरुत्व ऋद्धि कहते हैं।
रहे हैं', यह गाभाषण कहलाता है। अथवा दो के गुरु नामकर्म- जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्ग
मध्यगत प्रीति को नष्ट करने के लिए एक दूसरे लाणं गुरुप्रभावो होदि तं गुरुप्रणाम । (धव. पु. ६,
की चुगली करना, इसे गुह्यभाषण कहते हैं। यह पृ. ७५)।
सत्याणुव्रत का एक अतिचार है। जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गलों में भारी- गूढब्रह्मचारी- १. गुढब्रह्मचारिणः कुमारश्रमणाः पन हुआ करता है उसे गुरुनामकर्म कहते हैं। सन्तः स्वीकृतागमाभ्यासा बन्धुभिःसहपरीषहैरागुरुविनय-१. श्रुतग्रहणं कुर्वतो गुरोविनयः कार्यः, त्मना नृपतिभिर्वा निरस्तपरमेश्वररूपा गृहवासविनयः अभ्युत्थान-पादधावनादिः । (दशव. नि. हरि. रता भवन्ति । (चा. सा. पृ. २१; सा. ध. स्वो. टी. वृ. १८४, पृ. १०४)। २. औचित्याद् गुरुवृत्तिर्बहुमा- ७-१६)। २ कुमार श्रमणा: सन्त: स्वीकृतागमनस्तत्कृतज्ञताचित्तम् । अाज्ञायोगस्तत्सत्यक रणता विस्तराः। बान्धवर्धरणीनाथैर्दु सहैर्वा परीषहैः ।। चेति गुरुविनयः ॥ (षोडश. १३-२) ।
पात्मनवाऽथवा त्यक्तपरमेश्वररूपकाः । गृहवासरता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org