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क्षायोपशमिक सम्यक्त्व]
३६१, जैन-लक्षणावली
[क्षारतंत्र चिकित्सादोष
चोपशमात् सम्यक्त्वरूपतापत्तिलक्षणाद्विष्कम्भितो. उदय को प्राप्त चार संज्वलन और सात नोकषायों दयस्वरूपाच्च क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं व्यपदिशन्ति (हास्य, रति, परति व शोक में से यथासम्भव दो कथयन्ति । (प्रव. सारो. व. ९४४); सम्यक्त्वमपि से रहित) के देशघाती स्पर्धकों की उपशम संज्ञा, क्षायोपश मिकं दर्शन सप्तकक्षयोपशमे। (प्रव. सारो. क्योंकि उनकी चारित्र के घातने की शक्ति का वृ. १२६२)। १५. तत्र उदीर्णस्य मिथ्यात्वस्य । उपशम पाया जाता है तथा उदय के विनष्ट हो क्षयेणानुदीर्णस्य चोपशमेन सम्यक्त्वरूपतापत्तिलक्ष- जाने से उन्हीं के सर्वघाती स्पर्धकों की क्षय संज्ञा णेन विष्कम्भितोदयस्वरूपेण च य निर्वृत्तं क्षायोप- है। इन दोनों के प्राश्रय से उत्पन्न होने वाले संयम शमिकम् । (षडशी. मलय. व. १७, पृ. २१)। को क्षायोपशमिक संयम कहा जाता है। अथवा १६. दर्शनमोहनीय भेदस्य सम्यक्त्वप्रकृते: सर्वघाति- उक्त ग्यारह प्रकृतियों के उदय का नाम ही क्षयोस्पर्धकाना मुदयाभाव लक्षणे क्षये तेषामेव सदवस्था- शम है, कारण कि चारित्रविघातक शक्ति के प्रभाव लक्षणे उपशमे च उदयनिषेकदेशघातिस्पर्द्धकस्यो- की क्षयोपशम संज्ञा सम्भव है। उससे उत्पन्न दयात् क्षायोपशमिक सम्यक्त्वं तत्त्वार्थश्रद्धान भवेत्। प्रमादसंगत संयम को क्षायोपशमिक कहा जाता है। (गो. जी. म. प्र. टी. २५)। १७. सर्वघ्नस्पर्धकानां क्षायोपशामिक संयमासंयम-अनन्तानुबन्ध्यप्रत्यायः पाकाभावात्मकः क्षयः। सत्तात्मोपशमो यत्र । ख्यानकषायाष्टकोदयक्षयात् सदुपशमाच्च प्रत्याख्याक्षायोपशमिकं हि तत् ।। उदितास्ते क्षयं याताः नकषायोदये संज्वलनकषायदेशघातिस्पर्धको दये नोस्पर्धकाः सर्वघातकाः। शेषाः प्रशमिताः सन्ति क्षा. कषायनवकस्य यथासम्भवोदये च विरताविरतपरियोपशमिकं ततः ।। (भावसं. वाम. ३९८-९६)। णामः क्षायोपशमिकः संयमासंयम इत्याख्यायते । १८. अनन्तानुबन्धिचतुष्क-मिथ्यात्व-सम्यमिथ्या- (स. सि. २-५; त. वा. २, ५, ८)। त्वानां षण्णामुदयक्षयात् सद् पोशमात् सम्यक्त्वनाम- अनन्तानुबन्धी चार और अप्रत्याख्यान चार इन मिथ्यात्वस्य देशघातिनः, न तु सर्वघातिनः उद- पाठ कषायों के उदयक्षय और सदवस्थारूप उपयात् मिश्रं सम्यक्त्वं भवति, क्षायोपामिकं सम्य- शम के साथ प्रत्याख्यान के उदय, संज्वलन कषाय क्त्वं स्यात्. तद्वेदकमित्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत, के देशघातिस्पर्धकों के उदय तथा नोकषायों का
यथासम्भव उदय होने पर जो विरताविरतपरिणाम यत् । क्षायोपशमिकं नाम सम्यक्त्वं तन्निगद्यते ॥ उत्पन्न होता है उसे क्षायोपमिक संयमासंयम (धर्मसं. श्रा. ४-६७)।
कहते हैं। १ अनन्तानुबन्धी चार, मिथ्यात्व और सम्यग्मि- क्षायोपशमिकी लब्धि - प्रागुपात्त कर्मपटलानुथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयक्षय और उन्हीं के भागस्पर्द्धकानां शुद्धियोगेन प्रति समयानन्तगुणहीनासदवस्थारूप उपशम से तथा सम्यक्त्वप्रकृति के नामुदीरणा क्षायोपशमिकी लब्धिः । (पंचसं. श्रमित. देशघाती स्पर्धकों के उदय से उत्पन्न होने वाले पृ. ३६; अन. ध. स्वो. टी. २-१६)। तत्त्वार्थश्रद्धान को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। पूर्वसंचित कर्मपटल के अनुभागस्पर्द्धकों की जो क्षायोपनिक संयम-पत्तोदयएक्कारसचारित्त- शुद्धि के योग से प्रतिसमय अनन्तगुण हीन होते हुए मोहणीयपयडिदेसघादिफयाण मुवसमसण्णा, निरव- उदीरणा होती है उसका नाम क्षायोपश मिकी सेसेण चारित्तघायणसत्तीए तत्थुवसमूवलंभा । लब्धि है। तेसि चेव सम्वघादिफयाणं खयसण्णा, णट्रोदयभा- क्षारतंत्र चिकित्सादोष-क्षारतंत्र क्षारद्रव्यं दृष्टवत्तादो। तेहि दोहिम्हि उप्पण्णो संजमो खग्रोव- व्रणादिशोधन करम् । xxx एवमष्टप्रकारेण समियो । प्रधवा एक्कारसकम्माणमुदयस्सेव खग्रो- चिकित्साशास्त्रेणोपकारं कृत्वाहारादिक गृह्णाति वसमसण्णा । कुदो? चारित्तघायणसत्तीए अभाव- तदानीं तस्याष्टप्रकारचिकित्सादोषो भवत्येव, सावस्सेव तव्ववएसादो। तेण उप्पण्ण इति खग्रोवसमि- द्यादिदोषदर्शनादिति । (मला. वृ. ६-३३) । प्रो पमादाणुविद्धसंजमो। (धव. पु. ५, पृ. २२०, क्षार द्रव्य घावों को शद्ध करने वाला है। कौमार २२१)।
प्रादि पाठ प्रकार के चिकित्साशास्त्रों में से प्रत
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