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________________ निषीय ] निषीय ( निसीह) - | देखो निषिद्धिका ( श्रुतविशेष ) । पच्छन्नं तु निसीहं निसीहह्नामं जहज्झयणं । ( श्राव. नि. १०२१ ) 1 जिसका पाठ व उपदेश एकान्त में किया जाता है ऐसे प्रच्छन्न श्रुत को निशीथ कहा जाता है। यह बद्ध लोकोत्तर श्रुत है । जैसे- श्राचारांग की द्वितीय चूलिका के श्रन्तर्गत निषीय नामक एक अध्ययन | निषीथिका (निसीहिया ) - एग्गंता सालोगा णाfatafaट्ठाण चावि सण्णा । वित्थिष्णा विद्वत्ता णिसीहिया दूरमागाढा ।। (भ. श्री . १९६८ ) । जो एकान्त में हो, प्रकाश युक्त हो, नगर श्रादि से न प्रति दूर हो और न प्रति समीप भी हो, विस्तीर्ण हो, प्रासुक हो, तथा अतिशय दृढ़ हो; ऐसी निषीथिका या निषद्या होती है, जहां प्राराधक के निर्जीव शरीर को स्थापित किया जाता है । निषेक - १. आबाघूणिया कम्मदिट्ठी कम्मणिसेप्रो । ( ष. खं. १, ६- ६, ६ व ६ श्रादि, पू. १५० श्रादि ) । २. निषेचनं निषेकः, कम्मपरमाणुक्खंघणवखेवो णिसेगो णाम । ( धव. पु. ११, पृ. २३७ ) । ३. प्राबाहूणियम्मदी णिसेगो दु सत्तकम्माणं । (गो. क. १६० व ६१९ ) । ४. प्रावाघोवंस्थितावस्यां समयं समयं प्रति । कर्माणुस्कन्धनिक्षेपो निषेकः सर्वकर्मणाम् ॥ ( पंचसं श्रमित. २०६, पृ. १३१) । ५. निषेकश्च प्रतिसमयं बहु-हीन-हीनतरस्य दलिकस्यानुभवनार्थं रचना निघत्तमपीह निषेक उच्यते । (समवा. अभय वृ. १५४) । १ विवक्षित कर्म की स्थिति में से उसके श्रावाघाकाल को घटा देने पर शेष रही स्थिति प्रमाण उसका निषेक- प्रत्येक समय में क्रम से उदय में श्राने वाला कर्मस्कन्ध - होता है। विशेष इतना है कि घायु कर्म की निषेकरचना उसकी स्थिति के समयों प्रमाण ही होती है । निषेकक्षुद्रभवग्रहण - सुहुमेइंदियप्रपज्जत्तसंजुतो जहण्णा उप्रबंघो णिसेयखुद्दाभवग्गहणं णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ३६२) । सूक्ष्म एकेन्द्रिय प्रपर्याप्त नामकर्म के साथ जो जघन्य आयु का बन्ध होता है उसका नाम निषेकक्षुद्रभवग्रहण है । ल. ८० Jain Education International ६३३, जैन- लक्षणावली [ निष्कृप निषेक स्थितिप्राप्तक - १. जं कम्मं जिस्से द्विदीए णिसितं प्रोकडिदं वा उक्कड्डिदं वा तिस्से चेव द्विदीए उदए दिस्सइ तं णिसेर्याट्ठदिपत्तयं । ( कसायपा. चू. पृ. २३६) । २. जं कम्मं जिस्से द्विदीए णिमित्तं तमोकड्डुक्कडुणाहि हेट्टिम उवरिमट्ठिदीण गंतूण पुणों श्रोव डुक्कड्डुणवसेण ताए चेव द्विदीए हो जहा णिसितेहि सह उदए दिस्सदि तणिसे यपित्तयं णाम । ( धव. पु. १०, पृ. ११३) । १ जो कर्मप्रदेशाग्र बंधने के समय में ही जिस स्थिति में निषिक्त कर दिया गया है वह श्रपकर्षित उत्कर्षित होकर उसी स्थिति में यदि उदय में श्राता है तो उसे निषेकस्थितिप्राप्तक कर्म कहते हैं । निषेधिका - देखो निषिद्धिका । निष्कल परमात्मा - निष्कलो मुक्तिकान्तेश श्चिदानन्दैकलक्षणः । अनन्त सुख संतृप्तः कर्माष्टकविवजित: । ( भावसं वाम. ३५७) । जो प्राठ कर्मों से रहित होकर मुक्तिरूप कान्ता का स्वामी हो चुका है - सिद्ध हो चुका है - वह श्रनन्त सुख का अनुभव करने वाला निष्कल परमात्मा कहलाता है । निष्काङ्क्षा गुण - देखो निःकांक्षित अंग । इहलोक-परलोकाशा रूपभोगाकाङ्क्षा निदानत्यागेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणव्यक्तिरूपमोक्षार्थं ज्ञान- पूजा - तपश्चरणाद्यनुष्ठान करणं निष्काङ्क्षागुणः । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४१) । इस लोक औौर पर लोक में श्राशारूप भोगाभिलाषास्वरूप निदान को छोड़कर केवलज्ञानादि श्रनन्त गुणों की श्रभिव्यक्तिरूप मोक्ष के निमित्त ज्ञान, पूजा और तपश्चरण श्रादि का जो श्रनुष्ठान किया जाता है उसे निष्कांक्षा गुण कहते हैं । निष्कांक्षित - देखो निःकांक्षित । तथा निष्कांक्षितो देश- सर्वकांक्षा रहितः । ( दशवं. नि. हरि. वृ. १८२, पृ. १०२; घ. बि. मु. वृ. २- ११) । देशकांक्षा और सर्वकांक्षा से रहित सम्यग्दृष्टि जीव को frosiक्षित कहते हैं । निष्कृप - चंक्रमणाई सत्तो सुनिक्किवो थावराइसतेसु । काउं च नाणुतप्पर एरिसिनो निकिवो होई || ( बुहत्क. १३१९) । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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