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कालसंसार] ३५३, जैन-लक्षणावली
[कालातिक्रम होते हैं, वे कालसंयोग-नाम कहे जाते हैं । जैसे- पूर्वाह्लादिभेदभिन्नः कालसामायिकम् । (मूला. व. सुषमसुषमज, सुषमज, सुषमदुःषमज प्रादि तथा ७-१७)। ३. कालसामायिक वसन्त-ग्रीष्मादिषु प्रावृषिक, शारद व हेमन्तक आदि ।
ऋतुषु दिन-रात्रिसितासितपक्षादिषु च यथास्वं चार्वकालसंसार--१. तत्र परमार्थकालवर्तितपरिस्पन्दे- चारुषु राग-द्वेषानुद्भवः । xxx कालसामायिक तरपरिणामविकल्पः तत्पूर्वकालव्यपदेशौपचारिक- तु यस्मिन् काले सामायिकस्वरूपेण परिणतो जीव: कालत्रयवृत्ति: कालसंसारः । (त. वा. ६, ७, ३)। स काल: पूर्वाल्ल-मध्याह्नापराह्लादिभेदभिन्नः । २. कालस्य दिवस-पक्ष-मासवयन-संवत्सरादिलक्षणस्य (अन. घ. स्वो. टी. ८-१६)। ४. वसन्तादिषु संसरणं चक्रन्यायेन भ्रमणं पल्योपमादिकालविशेष- ऋतुषु शुक्ल-कृष्णयोः पक्षयोः दिन-वार-नक्षत्रादिषु विशेषितं वा यत्कस्यापि जीवस्य नरकादिषु स कान- च इष्टानिष्टेषु कालविशेषेषु राग-द्वेषनिवृत्तिः कालसंसारः। (स्थानां. अभय. व. ४, १,२६१. प. सामायिकम् । (गो. जी. म. प्र. टी. ३६७)। १८८)।
५. बसंताइसु उडुसु सुक्क-किण्हाणं पक्खाणं दिण१. निश्चय काल के निमित्त से होने वाले प्रात्म- वार-णक्खत्ताइसु च तेसु कालविसे सेसु तं णियट्टी प्रदेशों में परिस्पन्द और इतर परिणमन को तथा कालसामाइयं । (अगप. पृ. ३०६)। उक्त निश्चय काल के निमित्त से काल इस नाम को १ वसन्तादि छह ऋतुओं के अनुकूल या प्रतिकूल प्राप्त तीनों व्यवहार कालों में होने वाले संसरण को होने की अवस्था में उन पर राग या कालसंसार कहते हैं। २. दिन, पक्ष, मास, ऋतु, को कालसामायिक कहते हैं। . अयन और वर्ष प्रादिरूप कालका जो चक्र के समान कालस्तव- १. स्वर्गावतरण-जन्म-निष्क्रमण-केवपरिभ्रमण होता है, इसका नाम कालसंसार है। लोत्पत्ति-निर्वाणकालानां स्तवनं कालस्तवः। (मूला. अथवा पल्योपमादि काल विशेष से विशेषता को वृ. ७-४१) । २. कालस्तवस्तीर्थकृतां स ज्ञेयो प्राप्त जिस किसी भी जीवका जो नरकादि गतियों यदनेहसः । तद्गर्भावतरायुद्धक्रियादृप्तस्य कीर्तनम् ॥ में परिभ्रमण होता है उसे कालसंसार जानना (अन. प. ८-४३)। चाहिए।
१ तीर्थकरों के गर्भादि कल्याणक सम्बन्धी कालों का कालसंस्थान-प्रद्धायाः कालस्याकारोऽद्धाक्षेत्र स्तवन करने को कालस्तव कहते हैं।
कृतिज्ञेयः, सर्यक्रियाभिव्यङग्यो हि कालस्पर्शन-कालदव्वस्स अण्णदब्वेहि जो संजोयो कालः किल मनुजक्षेत्र एव वर्तते, अतो य एव तस्या- सो कालफोसणं णाम । (धव. पु. ४, पृ. १४४)। कारः स एव कालस्याप्युपचारतो विज्ञेयः । (प्राव. काल द्रव्य का अन्य द्रव्यों के साथ जो संयोग होता हरि. वृ. मल. हे. टि. पृ. ६४)।
है उसे कालस्पर्शन कहते हैं। कालका क्षेत्र जो मनुष्यलोक है उसे ही कालसंस्थान- कालाणु-लोयायासपदेसे इक्केके जे ठिया है काल का प्राकार--जानना चाहिये। सर्य के संचार एक्केक्का। रयणाणं रासी इव ते कालाण मुणेसे अभिव्यक्त होनेवाला काल (व्यवहारकाल) चंकि यव्वा ।। (धव. पु. ४, पृ. ३१५ उद् ; द्रव्यसं. २२, मनुष्यलोक में ही पाया जाता है, अत: मनुष्यलोक का गो. जी. ५८८)।
प्राकार है, उसे ही उपचार से कालसंस्थान एक एक लोकाकाशप्रदेश के ऊपर जो रत्नों की समझना चाहिये।
राशि के समान एक एक काल के प्रण स्थित हैं वे कालसामायिक-१. छ. उदुविसयसंपरायणिरोहो कालाणु कहलाते हैं। कालसामाइयं । (जयध.१, पृ.१८) २. प्रावट-वर्षा- कालातिक्रम-१. प्रकाले भोजनं कालातिक्रमः । हेमन्त-शिशिर-वसन्त-निदाघाः षड् ऋतवो रात्रि- (स. सि. ७-३६)। २. कालातिक्रम इति कालदिवस-शुक्लपक्ष-कृष्णपक्षाः कालस्तेषूपरि राग-द्वेष- स्यातिक्रमः कालातिक्रमः उचितो यो भिक्षाकालः वर्जनं कालसामायिकं नाम | XXX अथवा X साधूनां तमतिक्रम्य उल्लंध्य भुंक्ते तदा च किं तेन xx यस्मिन् काले सामायिकं करोति स कालः लब्धेनापि, कालातिक्रान्तत्वात्तस्य । (था. प्र.
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