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गणनामान ]
हो वह गणनाम कहलाता है । गणनामान - एक द्वि-त्रि- चतुरादिगणितमानं गणनामानम् । (त. वा. ३, ३८, ३, पृ. २०५ ) । एक, दो, तीन और चार आदि संख्यारूप मान को गणनामान कहते हैं ।
गरगना संख्येय- देखो सख्येय । ज तं गणणासंखेज्जयं तं तिविहं - परित्तासंखेज्जयं, जुत्तासंखे ज्जयं असं खेज्जासंखेज्जयं चेदि । ( धव. पु. ३, पृ. १२६)।
गणना संख्यात परीता संख्यात, युक्तासंख्यात श्रौर श्रसंख्याता संख्यात के भेद से तीन प्रकार का है । ( इनके पृथक्-पृथक् लक्षण उन्हीं शब्दों में देखना चाहिए ।)
गणाधिप – गणाधिपः घर्माचार्यस्तादृग्गृहस्थाचार्यो वा । (सा. ध. स्वो. टी. २-५१) । धर्माचार्य, अथवा उसके समान गृहस्थाचार्य को गणाधिप कहा जाता है । गरगावच्छेदक - गणावच्छेदकस्तु गच्छकार्य चिन्तकः । ( आचारा. शी. वृ. २, १,१०, २७६, पृ. ३२२) ।
गच्छ के - एक प्राचार्य के नेतृत्व में वर्तमान साधुसमूह के कार्यों की जो चिन्ता करता है, वह गणावच्छेदक कहलाता है ।
गणितपद - विक्खंभपायगुणिउ परिरउ तस्स गणिययं । (लघु संग्रहणी ७ ) ।
वृत्त क्षेत्र की परिधि को विष्कम्भ के चतुर्थ भाग से गुणित करने पर उसका गणितपद (क्षेत्रफल) होता है ।
गणिम-से कि तं गणिमे ?, २ जण्णं गणिज्जइ । तं जहा - एगो दस सयं सहस्सं दससहस्साई सयसहस्सं दससय सहस्साई कोडी । एएणं गणिमप्पमाणे कि पोणं ? एएणं गणिमपमाणेणं भितगभिति भत्त-वेश्रण प्रायव्वयसंसिघ्राणं दव्वाणं गणियप्यमाणनिव्वित्तिलक्खणं भवइ, से तं गणिमे । (अनुयो. सू. १३२, पृ. १५४) ।
एक, दश, शत, सहस्र, दशसहस्र, शतसहस्र (लक्ष), दशशतसहस्र और कोटि आदि संख्याओं को गणिम कहते हैं। भृतक (सेवक ), भृति ( पदाति श्रादिकों की वृत्ति), भोजन एवं जुलाहे आदि का वेतन; इन सबके प्राय-व्यय से सम्बद्ध रुपया आदि द्रव्यों
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४०७, जैन-लक्षणावली
[गतरूपध्यान
के लेखा-जोखा की सिद्धि यह उक्त गणिम का प्रयोजन है ।
गरणी - १. एकादशाङ्गविद् गणी । ( धव. पु. १४, पृ. २२) । २. गच्छाधिपो गणी । ( श्राधारा. शी. वृ. २, ९, १०, पू. ३२२ ) ।
१ ग्यारह अंगों के ज्ञाता को गणी कहते हैं । २ गच्छ के स्वामी को गणी कहते हैं ।
गण्डि - गच्छति प्रेरितः प्रतिपथादिना डीयते च कूर्दमानो विहायोगमनेनेति गण्डि: । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १- ६४, पृ. ४९ ) ।
प्रेरित किये जाने पर जो कुमार्ग से जाता है तथा उछलते-कूदते हुए जो प्राकाशगमन से भी छलांग मारता है उसे गण्डि कहते हैं ।
गण्डिका - इहैक वक्तव्यतार्थाधिकारानुगता वाक्यपद्धतयो गण्डिका उच्यन्ते । ( नन्दी. हरि. व. पु. १०६; समवा. अभय. व. १४७ ) । एक वक्तव्यतारूप अर्थाधिकार से प्रनुगत वाक्यपद्धतियों को गण्डिका कहते हैं। fusaraयोग तासां (गण्डिकानां) अनुयोग: श्रर्थं कथनविधिः गण्डिकानुयोगः । ( नन्दी. हरि. यू. पू. १०६; समवा. अभय वू. १४७, पृ. १२२ ) । गण्डिकाओं के अर्थ की कथनविधि को गण्डिकानयोग कहते हैं ।
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गतप्रत्यागततप - यया वीथ्या गतः पूर्वं तयंव प्रत्यागमनं कुर्वन् यदि लभते भिक्षां गृह्णाति नान्यथा । (भ. प्रा. विजयो. २१८ ) ।
पहले जिस वीथी (गली) से गया था, उसी वोयो से लौटते हुए यदि भिक्षा मिले तो ग्रहण करे, अन्यथा ग्रहण न करे; इस प्रकार के नियम लेने को गतप्रत्यागतवृत्तिपरिसंख्यानतप कहते हैं । गतरूपध्यान - ण य चितइ देहत्थं देहबहित्थं ण चितए कि पि । ण सगय-परगयरूवं तं गयरूवं निरालंबं । जत्थ ण करणं चिता अक्खररूवं ण धारणा धेयं । ण य वावारो कोई चित्तस्स य तं निरालंब || इंदियविसयवियारा जत्थ स्वयं जंति राय-दोसं च । मणवावारा सव्वे तं गयरूवं मुष्णेयव्वं ॥ ( भावसं. वे. ६२८-३० ) ।
जिस ध्यान में न बेहस्थ किसी वस्तु का चिन्तन किया जाता है, न देह के बाहिर स्थित किसी वस्तु का चिन्तन किया जाता है, न स्वगत रूप का
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