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पार्थिवी धारणा
वज्र के चिह्न से चिह्नित और आकार में चौकोण धरापुर - पार्थिव मण्डल होता है । पार्थिवी धारणा - तिर्यग्लोकसमं ध्यायेत् क्षीराब्धि तत्र चाम्बुजम् । सहस्रपत्रं स्वर्णाभं जम्बूद्वीपसमं स्मरेत् ।। तत्केसरततेरन्तः स्फुरत्पिङ्गप्रभांचिताम् । स्वर्णाचलप्रमाणा च कणिकां परिचिन्तयेत् ।। श्वेतसिंहासनासीनं कर्मनिर्मूलनोद्यतम् । ग्रात्मानं चिन्तयेत्तत्र पार्थिवी धारणेत्यसौ || ( योगशा. ७, १०-१२) ।
७०७, जैन-लक्षणावली
ध्यान की अवस्था में मध्य लोक के बराबर क्षीरसागर, उसके मध्य में जम्बूद्वीप के प्रमाण वाले सहस्रपत्रमय सुवर्णकमल, उसके पराग समूह के भीतर पीली कान्ति से युक्त सुमेरु के प्रमाण कणिका और उसके ऊपर एक श्वेत वर्ण के सिंहासन पर स्थित होकर कर्मों के नष्ट करने में उद्यत श्रात्मा का चिन्तन करे । यह पार्थिवी धारणा कहलाती है ।
पार्श्व --- पश्यति सर्वभावानिति निरुक्तात् पार्श्वः, तथा गर्भस्थे जनन्या निशि शयनस्थयाऽन्धकारे सर्पो दृष्ट इति गर्भानुभावोऽयमिति मत्वा पश्यतीति पार्श्वः, पार्श्वोऽस्य वैयावृत्त्यकरस्तस्य नाथः, भीमो भीमसेन इति वत् पार्श्व: । (योगशा. स्वो विव. ३-१२४)।
'पश्यति सर्वभावानिति पार्श्व' इस निरुक्ति के अनुसार जो समस्त पदार्थों को देखता है उसका नाम पार्श्व है, अथवा माता के गर्भ में स्थित होने पर शय्या पर स्थित माता ने अन्धकार में जो सर्पको देखा था, यह गर्भ का प्रभाव है, ऐसा मानकर 'पश्यति' इस निरुक्ति के अनुसार 'पार्श्व' कहलाये, अथवा पार्श्वनामक यक्ष के स्वामी होने से तेईसवें तीर्थकर का नाम पार्श्वनाथ प्रसिद्ध हुआ । पार्श्वतः अन्तगत अवधिज्ञान - १. से किं तं पास प्रतयं ? पास अंतगयं - से जहानामए केइ पुरिसे उक्कं वा चडुलिश्रं वा अलायं वा मणि, वा पई वा जोई वा पासो काउं परिकंड्ढेमाणे गच्छज्जा से तं पास अंतगयं । ( नन्दी. सू. १०, पृ. ८२ ) । २. थेन तु पार्श्वतः एकतो द्वाभ्यां वा संख्येयान्यसंख्येयानि वा योजनानि पश्यति स पार्श्वतोऽन्तगतः इति । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१७, पृ. ५३७) ।
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[पार्षद्य
१ जिस प्रकार कोई पुरुष उल्का ( छोटा दीपक ), चटुली ( अन्त में जलता हुआ घास का पूला ),
लात (अग्रभाग में जलती हुई लकड़ी), मणि, प्रदीप श्रथवा ज्योति को पार्श्वभाग में करके खींचता हुआ जाता है; इसी प्रकार जो अवधिज्ञान एक पार्श्व से अथवा दोनों पार्श्वो से संख्यात श्रसंख्यात योजनों को देखता है, वह पार्श्वतः श्रन्तगत अवधिज्ञान कहलाता है ।
पार्श्वमुद्रा - पराङ्मुखहस्ताभ्यां वेणीबन्धं विधायाभिमुखीकृत्य तर्जन्यौ संश्लेष्य शेषाङ्गुलिमध्ये प्रगुष्ठद्वयं विन्यसेदिति पार्श्वमुद्रा । (निर्वाणक. पृ. ३३ ) | उल्टे हाथों से वेणीबन्ध करके सामने करते हुए दोनों तर्जनियों के मिलाने और शेष अंगुलियों के मध्य में दोनों अंगूठों के रखने पर पार्श्वमुद्रा होती है । पार्श्वस्थ -- १. दंसण-नाण-चरिते तवे य प्रत्तहितो पवयणे य । तेसिं पासविहारी पासत्थं तं बियाणेहि ॥ ( व्यव. भा. १-२२७, पृ. १११ ) । २. प्रयोग्यं सुखशीलतया यो निषेवते कारणमन्तरेण स सर्वथा पार्श्वस्थः । (भ. श्री. विजयो. १६५० ) । ३. यो वसतिसु प्रतिबद्ध उपकरणोपजीवी च श्रमणानां पार्श्व तिष्ठतीति पार्श्वस्थः । (चा. सा. पृ. ६३ ) | ४. सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्राणां पार्श्वे समीपे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः रत्नत्रयबहिर्भूतः । ( प्रायश्चित्तस. टी. ७-२५) ५. वसत्युपधिसंगस्थः पार्श्वस्थः स्यात् X XXI ( आचा. सा. ६ - ५० ) । ६. पार्श्वस्थोऽन्योद्गमादिभोजी शबलाचारः । ( व्यव. मलय. वृ. ३, १६५, पृ. ३५ ) । ७. निरतिचारसंयममार्ग जानन्नपि न तत्र वर्तते, किन्तु संयममार्गपार्श्वे तिष्ठति, नैकान्तेनासंयतः, न च निरतिचारसंयमः, सोऽभिधीयते पार्श्वस्थः । ( भ. प्रा. मूला. १६५० ) । ८. पार्श्वस्थः दर्शनादीनां पार्श्वे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः । ( सम्बोधस. वृ. ६, पृ. १० ) ।
१ जो श्रात्महितकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और प्रवचन के पार्श्व में विहार करता है—उनके पूर्णतया पालन में प्रयत्नशील नहीं रहता- उसे पार्श्वस्थ मुनि कहा जाता है । २ जो सुखस्वभाव होने से कारण के विना ही अयोग्य का सेवन करता है, वह पार्श्वस्थ कहलाता है । पार्षद्य - देखो पारिषद्य । १. वयस्यप्रायाः पार्षद्याः × × × । ( त्रि. श. पु. च. २, ३, ७७३ ) ।
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