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द्रध्योत्थान] ५६४, जन-लक्षणावली
[हिल २२६) । १०.xxx तु दव्वं देहुदयजदेहचिण्हं चेव । (मूला. ७-५५); दन्वज्जोवोज्जोवो पडि. तु ॥ (गो. जी. १६५)। ११. पुद्गलपरिणामो हण्णदि परिमिदम्हि खेत्तम्हि । (मूला. ७-५८) । द्रव्येन्द्रियं निर्वृत्त्युपकरणलक्षणम् । (लघीय. अभय. अग्नि, चन्द्र, सूर्य एवं मणि; ये द्रव्योगोतस्वरूप वृ. १-५, पृ. १४)। १२. द्रव्यं पुद्गलपर्यायः, हैं। यह द्रव्योद्योत परिमित क्षेत्र में रहता और तदुपमिन्द्रियं द्रव्येन्द्रियम्। (गो. जी. मं. प्र. टी. अन्य द्रव्य के द्वारा प्रतिघात को भी प्राप्त होता है। १६५)। १३. प्रतिनियतसंस्थानाभिव्यंजकरूप[पि] द्रव्योपक्रम-१. तत्र द्रव्यस्य नटादेरुपक्रमणंपुदगलद्रव्यात्मकमिन्द्रियं द्रव्येन्द्रियम् । (गो. जी. जी. कालान्तरभाविनापि पर्यायेण सहेदानीमेबोपायविशेप्र. १६५)।
षतः संयोजनं द्रव्योपक्रमः, अथवा द्रव्येण-घृतादि१निवत्ति सौर उपकरण को द्रव्येद्रिय कहा जाता ना, द्रव्ये भूम्यादी, द्रव्यतः घृतादेरेवोपक्रमो द्रव्योपहै। ४ पुद्गलों के द्वारा जो बाहिरी प्राकार की क्रम इत्यादिकारकयोजना विवक्षया कर्तव्येति । रचना होती है उसे तथा कदम्बपुष्पप्रादि के प्राकार (अनुयो. मल. हेम.. ६०, पृ. ४५)। २. द्रव्यस्य से युक्त उपकरण-ज्ञान के साधन-को द्रव्येन्द्रिय द्रव्याणां द्रव्येण द्रव्यर्वा द्रव्ये द्रव्येषु वा उपक्रमो कहते हैं।
द्रव्योपक्रमः। तत्र द्रव्यस्योपक्रमो यथा एकस्य पुरुषस्य द्रव्योत्थान-द्रव्योत्थानं शरीरं स्वा
शिक्षाकरणम्, द्रव्याणामुपक्रमो यथा तेषामेव बहुनाम, अविचलमवस्थानम् । (भ. प्रा. विजयो, ११६)। द्रव्येणोपक्रमो यथा फलकेन समुद्रतरणम्, द्रव्यरूपकायोत्सर्ग करते समय शरीर को स्थाणु (बूंठ) के क्रमो बहुभियंथा फलकै बं निष्पाद्य समुद्रोल्लंघनम्, समान ऊंचा स्थिर रखने को द्रव्योत्थान कहते हैं। द्रव्ये उपक्रमो यथा कस्याप्ये कस्मिन् फलके उपयह उत्थितोत्थित कायोत्सर्ग के प्रसंग में कहा गया विष्टस्य शिक्षाकरणम्, द्रव्येषूपक्रमो बहुषुपविष्टद्रव्योत्थान का लक्षण है।
स्य । (प्राव. नि. मलय.व. ७६)। -यत्र द्रव्ये उत्सृजति द्रव्यभूतो वा अनु- १ नट आदि द्रव्य का कालान्तर में होने वाली भी पयुक्तो वा उन्सृजति एष द्रव्योत्सर्गः। (माव. नि. पर्याय के साथ उपायविशेष से वर्तमान में ही संयोहरि. व. १४५२, ५७७१)।
जन करने को द्रव्योपक्रम कहते हैं। अथवा घी जिस द्रव्य के विषय में त्याग करता है उसे प्रादि के द्वारा, अथवा भूमि प्रादि द्रव्य के विषय द्रव्योत्सर्ग कहते हैं, अथवा जो द्रव्यभूत या तद्विष. में अथवा घृत प्रादि द्रव्य से जो उपक्रम किया यक उपयोग से रहित ज्ञाता है उसे द्रव्योत्सर्ग जाता है उसे द्रव्योपक्रम जानना चाहिए; इत्यादि जानना चाहिए।
विवक्षा के अनुसार कारकों को योजना करना द्रव्योत्सत (कायोत्सर्ग)-१. धम्म सुक्कं च दुवे चाहिए। नवि झायइ नवि य अट्ट-रुद्दाई। एसो काउस्सग्गो द्रुहिल-द्रोहस्वभावं द्रुहिलम्, यथा-"यस्य दव्युसियो होइ नायव्वो ॥ (माव. नि. १४८०)। बुद्धिनं लिप्यते हत्वा सर्वमिदं जगत् । प्राकाशमिव २. धर्म शुक्लं च द्वे नापि ध्यायति, नापि भार्त-रौद्रे, पङ्कन नासो पापेन युज्यते ॥" कलुषं वा दृहिलम्, एष कायोत्सगो द्रव्योत्सतो भवति । (प्राव. नि. येन समता पुण्य-पापयोरापाद्यते, यथा- एतावानेव हरि. वृ. १४८०)।
लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः। भद्रे वृकपदं पश्य सोनोधर्म और शक्ल इन दो का ध्यान करता यद वदन्ति बहश्रुताः ।। इत्यादि। (प्राव.नि.रि. है और न मार्त व रौद्र इन दो का भी ध्यान व मलय. वृ. ८८१)। करता है, यह द्रव्योत्सृत कायोत्सर्ग कहलाता है। द्रोहात्मक वचन को हिल कहा जाता है। जैसेद्रव्योद्गम-दव्वंमि लड्डगाइ xxx । समस्त लोक को नष्ट करके जिसकी बुद्धि लिप्त (पिण्डनि. ८६)।
नहीं की जाती है वह, जैसे कीचड़ से प्राकाश द्रव्य-लडडू मादि-विषयक उद्गम को द्रव्योद- कभी लिप्त नहीं होता, वैसे पाप से लिप्त नहीं गम कहा जाता है।
होता है। प्रथवा जिस वचन के द्वारा पुण्य और द्रव्योद्योत-दन्वज्जोवो भग्गी चंदो सूरो मणी पाप में समानता दिखलायी जाती है ऐसे मलिन
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