________________
नोप्रागमभावस्पर्शन]
किरियागुणसमूहमतो, सो त सामादियादिछण्हं अज्झयणाणं संमेलो, एत्थ किरिया णोद्यागमोत्ति काउं, गोसद्दो मीसभावे भवति, तस्स य भावखंघस एगट्टिया इमे XXX। (श्रनुयो चू. पू. १७) । ३. सामायिकादिषडध्ययन संहति निष्पन्न श्रावश्यकश्रुतस्कन्धो मुखवस्त्रिका रजोहरणादिव्यापारलक्षणक्रियायुक्ततया विवक्षितो नोग्रागमतो भावस्कन्धः । (अनुयो. मल. हेम. वृ. सू. ५६, पू. ४२ ) । १ सामायिकादि छहों श्रावश्यकों के समुदायरूप एक विशिष्ट परिणाम से जो श्रावश्यक श्रुतस्कन्ध निष्पन्न है वही भावस्कन्ध है और इसी को नोश्रागमभावस्कन्ध कहा जाता है । नोश्रागमभावस्पर्शन-फरिस गुणपरिणदपोग्गलदव्वं णोश्रागमभावफोसणं । ( धव. पु. ४, पू. १४४ ) । स्पर्श गुण से परिणत पुद्गल द्रव्य को नोश्रागमभावस्पर्शन कहा जाता है । नोश्रागमभावानुयोग - नोप्रागमतो भावस्यानुयोगोऽन्यतमस्यौदयिकादेव्र्व्याख्यानम्, भावानामनुयोगो नाम बहूनामौदयिकादीनां भावानां व्याख्यानम् । (प्राव. नि. मलय. वृ. १२६, पृ. १३२ ) । श्रदयिक आदि पांच भावों में से किसी एक भाव के या बहुत भावों के व्याख्यान करने को नोश्रागमभावानुयोग कहते हैं । इसी प्रकार भाव से अनुयोग, भावों से धनुयोग, एकभावविषयक अनुयोग एवं अनेक भावविषयक अनुयोग आदि अनेक विकल्पों को जानना चाहिए। नोश्रागमभावार्त – नोभागमतस्तु श्रदयिकभाववर्ती राग-द्वेषग्रहपरिगृहीतात्मा प्रियविप्रयोगादिदुःखसङ्कटनिमग्नो भावार्त इति व्यपदिश्यते, अथवा शब्दादिविषयेषु विषविपाकसदृशेषु तदाकांक्षित्वाद्धिताहितविचारशून्यमना भावार्त्तः कर्मोपचिनोति 1 ( प्राचारा. शी. वू. १, १, २, १४, पृ. ३१) ।
दकिभाव के वशीभूत, राग-द्वेष से परिणत श्रीर इष्टवियोग व प्रनिष्टसंयोग जनित दुःख से व्याप्त जीव को नोश्रागमभावातं कहते हैं । श्रथवा विषविपाक के समान शब्दादि विषयों का अभिलाषी होकर हिताहितविचार से शून्य मन वाले जीव को नोप्रागमभावार्त कहते हैं । नोप्रागमभावार्हन्- प्ररिहननाद् रजोहननाद् रहस्याभावादतिशयपूजार्हत्वाच्चाधिगतार्हद्व्यपदेशा नो
Jain Education International
[नोश्रागमभावोपक्रम
श्रागमभावादर्हन्त इति गृहीताः । (भ. प्रा. विजयो. ४६)।
जिन्होंने मोहरूप धरि का हनन करके तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरणरूप रज ( धूलि ) और रहस्य (अन्तराय) को नष्ट करके प्रतिशय पूजा के योग्य होने के कारण 'श्रहंत्' नाम को प्राप्त कर लिया है, ऐसे केवल्य धवस्था को प्राप्त अरहन्त देवों को नोश्रागमभावान् कहते हैं । नोश्रागमभावावश्यक – १. नोग्रागमतो भावावस्यं णाणुपयोगेण किरियं करेमाणस्स णाण - किरियारूवसुभोवयोगपरिणयस्स णोश्रागमतो भावावस्सतं । ( धनुयो. चू. पू. १३) । २. नोप्रागमतस्तु ज्ञानक्रियोभयपरिणामो भावावश्यकम्, उपयुक्तस्य क्रिये ति भावार्थ: । (श्राव. नि. हरि. वृ. ७६, पृ. ५२) । १ ज्ञानोपयोग के साथ क्रिया को करता हुआ जो जीव ज्ञान और क्रियारूप शुभ उपयोग से परिणत है उसे नोग्रागमभावावश्यक कहा जाता है । २ प्रावश्यक क्रियाओं के ज्ञान और श्राचरणरूप परि णाम को नोप्रागमभावावश्यक कहते हैं । अभिप्राय यह है कि सामायिकादि श्रावश्यकविषयक जीव का जो प्राचरण है उसे नोश्रागमभावावश्यक समझना चाहिए ।
नोश्रागमभावी दृष्टिवाद - गोश्रागमदिट्टिवादसरूवेण परिणमंतम्रो जीवो णोश्रागमभवियदिट्टिवादो । (घव. पु. ६, पृ. २०४ ) ।
भविष्य में दृष्टिवाद स्वरूप से परिणत होने वाले जीव को नोश्रागमभावो दृष्टिवाद कहा जाता है । नोश्रागमभावी द्रव्यभाव - भावपाहुडपज्जयसरूवेण जो जीवो परिणमिस्सदि सो गोश्रागमभविय
व्वभावो णाम । (धव. पु. ५, पृ. १८४) । जो जीव भावप्राभूत पर्यायस्वरूप से भविष्य में परिणत होगा उसे नोश्रागमभावी द्रव्यभाव कहा जाता है। नोनागमभावोपक्रम - तत्राद्यो जामातृ-परीक्षकब्राह्मणी वेश्यामात्यानामिव संसाराभिवद्धिना श्रध्यवसायेन परभावोपक्रमणरूप:, परश्च श्रुतादिनिमि त्तमाचार्यभावावधारणरूपः । ( जम्बूद्वी. शा. वृ. पृ. ६) ।
नोश्रागमभावोपक्रम प्रशस्त और प्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है— उनमें जामाता, परीक्षक, ब्राह्म
६५०, जैन - लक्षणावली
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org