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नामसम]
५६९, जैन-लक्षणावली
[नामस्पर्श
किया जाता है उसे नामसत्य कहते हैं। २ अर्थ के सामायिकं नाम xxx अथवा जाति-द्रव्य-गुणन होने पर भी सचेतन व अचेतन द्रव्य का व्यवहार क्रियानिरपेक्षं संज्ञाकरणं सामायिकशब्दमानं [वा] के लिए जो नामकरण किया जाता है वह नाम- नामसामायिकं नाम । (मला. व. ७-१७; अन. सत्य कहलाता है। जैसे इन्दनक्रिया के प्रभाव में घ. स्वो. टी. ८-१६)। ३. शुभेऽशुभे वा केनापि भी किसी का 'इन्द्र' यह नाम ।
प्रयुक्ते नाम्नि मोहतः । स्वमवाग्ल क्षण पश्यन्न रति नामसम-नाना मिनोतीति नाम । प्रणेगेहि पया. यामि नारतिम् ।। (अन. घ. ८-२१)। ४. इष्टारेहि प्रत्थपरिच्छित्ति णामभेदेण कणदि त्ति एगादि- निष्ट नामसू राग-द्वेषनिवत्तिः सामायिकमित्यभिधानं अक्खराण बारसंगाणिमोगाणं मज्झट्रिददवसूदणाण- वा नामसामायिकम् । (गो. जी. जी. प्र. टी. वियप्पा पाणमिदि वत्तं होदि । तेण णामेण दव- ३६७-६८)। ५. तत्थ इटाणि?णामेसु रायसुदेण समं सह बदि उप्पज्जदि त्ति सेसाइरिएसु। दोसणिवत्ती सामाइयमिदि अहिहाणं वा णामसाटिदसुदणाणं णामसमं । (घव. पु. ६, पृ. २६०); माइयं । (अंगप. ३-१३, पृ. ३०५)।। बुद्धिविहूणपूरिसभेएण एगक्खरादीहि ऊणकदिमणि- १ किसी जीवादि पदार्थ की निमित्त की अपेक्षा न योगो जाणा मिणोदीदि वप्पत्तीदो णाममिदि करके जो 'सामायिक' ऐसी संज्ञा की जाती है उसे भण्णदे। तेण सह वट्टमाणो भावक दिग्रणियोगो नामसामायिक कहा जाता है। २ इष्ट और अनिष्ट णामसमं णाम । (धव. पु.६, प. २६६); पाइरिय- नामों को सून करके उनमें राग या द्वेष के नहीं पादमूले बारहंगसहागमं सोऊण जस्स अहिलप्प- करने को नामसामायिक कहते हैं। अथवा जाति, स्थविसयं चेव सुदणाणं समुप्पण्णं सो णामसमं। द्रव्य, गण व क्रिया की अपेक्षा न करके जो 'सामा(धव. पु. १४, पृ. ८)।
यिक' संज्ञा की जाती है उसे नामसामायिक जानना जो नानारूप से जानता है उसे नाम कहा जाता चाहिए। है। अभिप्राय यह है कि नामभेद से जो अनेक नामस्तव-१. चतुर्विंशतितीर्थकराणां यथार्थानुप्रकार से अर्थ का परिच्छेदन करता है उसको नाम गरष्टोत्तरसहस्रसंख्यामभिः स्तवनं चतुविशतिकहते हैं। तदनुसार एक-दो प्रादि अक्षरस्वरूप नामस्तवः। xxx अथवा जाति-द्रव्य-गुणबारह अंगों के अनयोगों के मध्यवर्ती जितने द्रव्य- क्रियानिरपेक्षं संज्ञाकर्म चतविशतिमात्र नामस्तवः । श्रुतज्ञान के बिकल्प हैं उन्हें नाम जानना चाहिए। (मला.व. ७-४१)। २. अष्टोत्तरसहस्रस्य नाम्नाइस नामरूप द्रव्यश्रत के साथ शेष प्राचार्यों में वर्त- मन्वर्थमहताम् । वीरान्तानां निरुक्तं यत्सोऽत्र नाममान या उत्पन्न होने वाला श्रुतज्ञान नामसम स्तवो मतः ॥ (मन. प. ८-३६)। कहलाता है।
१चौबीस तीर्थंकरों का एक हजार पाठ सार्थक नामों नामसंक्रम-संकमसद्दो णामसंकमो। (धब. पु. से जो स्तवन किया जाता है वह नामस्तव कहलाता १६, पृ. ३३६)।
है। अथवा जाति, द्रव्य, गण और क्रिया की अपेक्षा 'संक्रम' शब्द को नामसंक्रम कहा जाता है। न रखकर जो 'चतुर्विशति' मात्र नामकरण किया नामसंख्या-से किं तं नामसंखा ? २ जस्स णं जाता है उसे नामस्तव जानना चाहिए। जीवस्स वा जाव से तं नामसंखा। (अनुयो. सू. नामस्थापना[स्थान]--नामस्थापना [स्थानं] यो १४६, पृ. २३०)।
यस्य नाम्न: प्रो योग्य इत्यर्थः। (उत्तरा. चू. पृ. एक जीव व एक अजीव प्रादि में से जिसका २४०)। 'संख्या' ऐसा नाम किया जाता है उसे नामसंख्या जो स्थान जिस नाम के योग्य है उसे नामस्थान कहते हैं।
कहते हैं। नामसामायिक-१. निमित्तनिरपेक्षा कस्यचि- नामस्पर्श-जो सो णामफासो णाम सो जीवस्स ज्जीवादेरध्याहिता संज्ञा सामायिकमिति नामसामा- वा, अजीवस्स वा, जीवाणं वा, अजीवाणं वा, यिकम् । (भ. प्रा. विजयो. ११६)। २. शुभना- जीवस्स च प्रजीवस्स च, जीवस्स च अजीवाणं च, मान्यशुभनामानि च श्रुत्वा राग-द्वेषादिवर्जनं नाम- जीवाणं च अजीवस्स च, जीवाणं च मजीवाणं च
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