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धारणावरणीय ]
पर लब्धिरूप में धारणारूप मति की विद्यमानता - श्रौर अवधारण को धारणा कहा जाता है । धारणावरणीय - एतस्या: ( धारणायाः ) आवारकं कर्म धारणावरणीयम् । (धव. पु. १३, पृ. २१ε)।
इस धारणा मतिज्ञान का प्राच्छादन करनेवाले कर्म को धारणावरणीय कहते हैं । धाररणाव्यवहार-धारणाववहारो संविग्गेण गीयत्येणारिएणं दव्वखेत्त-काल-भाव- पुरिसप डिसेवणासु अवलोएऊण जम्मि जं अवराहे दिन्नं पच्छित्तं तं पासिऊण प्रन्नो वि तेसु चेव दव्वाइएसु तारिसावराहे तं चैव पच्छित्तं देइ, एस धारणाववहारो । अहवा वेयावच्चगरस्स गच्छोवग्गहकारिणो फड्डुगपइणो वा संविग्गस देसदरिसणसहायस्स वा बहुसो पडितप्पियस्स श्रवसेस सुयाणुओगस्स उचियपायच्छित्तद्वाणदाणधारणं धारणाववहारो भन्नइ । (जीतक. चू. पृ. ४) ।
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पुरुषतिसेवना के विषय में देखकर संसार से भयभीत गीतार्थ - श्रागम के ज्ञाता - श्राचार्य के द्वारा जिस अपराध के होने पर जो प्रायश्चित्त दिया गया है उसका विचार करके अन्य श्राचार्य भी जो उक्त द्रव्यादि के श्राश्रित यंसे अपराध के होने पर वही प्रायश्चित्त देता है; इसका नाम धारणा व्यवहार है । प्रथवा वैयावृत्त्य करके गच्छ का उपकार करनेवाले, ब गण के प्रवान्तर विभाग के स्वामी, संविग्न (मोक्षाभिलाषी ) ; देशतः दर्शन की सहायता से युक्त, बहुत प्रकार से प्रतितर्पित तथा अवशेष श्रुत के उपयोग से सहित अन्य प्रायश्चित्तदाता श्राचार्य के प्रायश्चित्त के देने के धारण को व्यवहार कहा जाता है । धाराचाररण - श्रविराहिय तल्लीणे जीवे घणमुबकवारिधाराणं । उवर जं जादि मुणी सा धाराचारणा रिद्धी ॥ ( ति प ४ - १०४४) । जिसके प्रभाव से साधु मेघों से छोड़ी हुई जलधारा का प्राय करके ऊपर गमन करते हुए जलधारागत जीवों की विराधना नहीं करता है उसे धाराचारण ऋद्धि कहते हैं ।
धार्मिक - धर्मे श्रुत चारित्रात्मके भवः, स वा प्रयोजनमस्येति धार्मिकः । ( स्थाना. ३, ३, १८८, पृ. १५४) ।
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५७६, जैन-लक्षणावली
[धूमचारण
श्रुत धौर चारित्र स्वरूप धर्म में होने वाला प्रथवा उक्त धर्म जिसका प्रयोजन है वह धार्मिक कहलाता है ।
धार्मिक राजा (धम्मितो राया ) - १. उभतो जोणी शुद्धो राया दस भागमेत्तसंतृट्ठो । लोए वेदे समए कयागमो धम्मितो राया ॥ ( व्यव. भा. ३) । २. यो राजा उभययोनिशुद्धो मातृ-पितृपक्षपरिशुद्धः, तथा प्रजाभ्यो दश (म) भागमात्र ग्रहण संतुष्टः तथा लोके लोकाचारे, वेदे समस्तदर्श निनां सिद्धान्ते, समये नीतिशास्त्र कृतागमः कृतपरिज्ञानो धार्मिको धर्मश्रद्धावान् स राजा । ( व्यव. भा. मलय. वू. ३, पृ. १२६) । जिसका मातृपक्ष और पितृपक्ष शुद्ध हो, जो प्रजा से उसकी चाय का दशम भाग सेने में ही सन्तुष्ट रहता हो; तथा जो लोकव्यवहार, वेद - सब दर्शनियों के सिद्धान्त और नीतिशास्त्र का ज्ञाता हो वह धार्मिक राजा कहलाता है । धीर- १. धीरः सत्त्वसम्पन्नः । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ८७४, पृ. ३७२)। २. घीरा : कर्मविदारणसहिष्णवो धीरा वा परीषहोपसर्गाक्षोभ्याः, धिया बुद्धया राजन्तीति वा धीरा ये केचनासन्न सिद्धिगमनाः । (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. १, ६, ३३, पृ. १८५) । २ जो घी अर्थात् बुद्धि से सुशोभित होते हैं वे धीर कहलाते हैं और वे परोषह व उपसर्ग से विचलित न होकर थोड़े ही समय में मुक्ति को प्राप्त करने वाले होते हैं ।
धूमकेतु - १. उप्पादकाले चेव घूमलट्ठि व्व श्रागासे उवलब्भमाणा धूमकेदू णाम । ( षव. पु. १४, पृ. ३५) । २. धूमकेतुर्गगने धूमाकाररेखाया दर्शनम् । (मूला. बु. ५ - ७८ ) ।
१ उत्पात के समय में ही आकाश में जो धूमाकार रेखा दिखाई पड़ती है उसे घूमकेतु कहते हैं । धूमचारण- १. श्रध उड्ढ - तिरियपसरं घूमं प्रव लंबिऊण जं देंति । जं पदखेवे अक्खलिश्रा सा रिद्धी धूमचारणा णाम || ( ति प ४ - १०४२) । २. घूमबति तिरश्चीनामूर्ध्वगां वा श्रालम्ब्यास्खलि• तगमनास्कन्दिनो धूमचारणाः । (योगशा. स्वो विव. १-६; प्रव. सारो. वृ. ६०१, पृ. १६८ ) । १ जिसके प्रभाव से ऋषि जन तिरछे फैलने वाले बुएँ का
मीचे, ऊपर प्रौर अवलम्बन करके
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