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तद्भाव] ४८४, जन-लक्षणावली
तरिक्त परीषह कियों को छोड़कर शेष जीवों-कर्मभूमिज मनुष्य कर्मा नन्त और नोकर्मानन्त को तद्व्यतिरिक्त द्रव्याऔर तियंचों में-किन्हीं का तद्भवमरण होता है, नन्त कहा जाता है। अर्थात् ये मरकर पुन: उसी भव में उत्पन्न होते हैं। तव्यतिरिक्त द्रव्याहत्-तीर्थकरनामकर्म तद्तद्भाव-१. कस्तभावः? प्रत्यभिज्ञानहेतुता। व्यतिरिक्तद्रव्याहन् । (भ. प्रा. विजयो. ४६)। तदेवेदमिति स्मरणं प्रत्यभिज्ञानम् । तदकस्मान्न तीर्थकरनामकर्म को तव्यतिरिक्त द्रव्य-प्रर्हत् कहा भवतीति योऽस्य हेतुः स तद्भावः । भवनं भावः, जाता है। तस्य भावः तद्भावः । येनात्मना प्राग्दृष्टं वस्तु तेनै- तद्व्यतिरिक्त द्रव्यासंख्यात-जं तं तव्वदिरित्तवात्मना पुनरपि भावात् तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते। दव्वास खेज्जयं तं दुविहं-कम्मासंखेज्जयं णोकम्मा(स.सि.५-३१, त. वा.५, ३१,१). २. इत्यभिज्ञा- संखेज्जयं चेदि । (धव. पु. ३, पृ. १२४) । नहेतुत्वं तद्भावस्तु निगद्यते । (त. सा. ३-१४)। कर्मासंख्यात और नोकसिख्यात को तद्व्यतिरिक्त ३.तेषां धर्मादीनां द्रव्याणां येन स्वरूपेण भवनं भावः द्रव्यासंख्यात कहा जाता है। तद्भावः । (त. वृत्ति श्रुत. ५-४२)।
तद्व्यतिरिक्त नोग्रागमद्रव्यकाल-ववगददो१ 'यह वही है इस प्रकार के प्रत्यभिज्ञान का जो गंध-पंचरसट्ठफास-पचवण्णो कुंभारचक्कहेट्ठिमसिल व्व कारण है उसे तदभाव कहते हैं। सद्भाव का अभि- वत्तणालक्खणो लोगागासपमाणो अत्थो तव्वदिरित्तप्राय यह है कि जो वस्तु जिस रूप से पूर्व में देखी जोग्रागमदव्वकालो णाम । (धव. पु. ४, प. ३१४, गई है उसी रूप में उसका फिर भी बना रहना, ३१५) । इसका नाम तद्भाव है।
जो दो गन्ध, पांच रस, पाठ स्पर्श और पांच वर्ण aद्रिहीनाभ्यन्तर सचित्तस्थान-जं तं तविही- स राहत हा कुम्हार क चाक क नाच का कोल के णमभंतरं सच्चित्तट्ठाणं तं केवलणाण-दसणहराणं
समान वर्तनास्वरूप है, तथा लोकाकाश के प्रमाण है, अमोक्खठिदि-बंधपरिणयाण सिद्धाणं प्रजोगिकेवलीणं
वह तदव्यतिरिक्त नोग्रागमद्रव्यकाल कहलाता है। वा जीवदव्वं । (धव. पु. १०, पृ. ४३५)। तव्यतिरिक्त नोग्रागमद्रव्यदृष्टिवाद-दिट्टि
खलजान और केवलदर्शन के धारक तथा मोक्ष व वादसूदहेभूददव्वाणि अाहारादीणि तव्वदिरित्तस्थितिबन्ध से अपरिणत सिद्धों या अयोगिकेवलियोंका णोपागमदव्वदिद्विवादो। (धव. पु. ६, पृ. २०४)। जीवद्रव्य तद्विहीन (संकोच-विकोचविहीन) अभ्यन्तर दृष्टिवाद श्रुत के हेतुभूत आहारादि द्रव्य तद्व्यतिसचित्तनोग्रागमद्रव्यस्थान कहलाता है।
रिक्त नोग्रागमद्रव्यदृष्टिवाद कहलाते हैं। तव्यतिरिक्त द्रव्यलेश्या-तव्वदिरित्तदव्वलेस्सा तव्यतिरिक्त नोकर्मद्रव्यासंख्यात-दीव-समूपोग्गलखंधाणं चविखदियगेज्झो बण्णो। (घव. पू. वादि णोकम्मासंखेज्जयं । (धव. पु.३, प.१२४)। १६, पृ. ४८४)।
द्वीप व समुद्र आदि को तव्यतिरिक्त नोकर्मद्रव्याचक्षु इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य जो पुद्गल- संख्यात कहा जाता है। स्कन्धों का वर्ण होता है उसका नाम तद्व्यतिरिक्त तद्व्यतिरिक्त नोकर्मानन्त-जं तं णोकम्माणतं द्रव्यलेश्या है।
तं कडय-रुजगदीव-समूहादि एयपदेसादिपोग्गलदध्वं तव्यतिरिक्त द्रव्यवर्गणा-तव्वदिरित्तदव्ववग्गणा वा । (धव. पु. ३, पृ. १५)। विहा-कम्मवग्गणा णोकम्मवग्गणा चेदि । (धव. कटक, रुचक, द्वीप व समुद्र प्रादि अथवा एक प्रदेशी पु. १४, पृ. ५२)।
प्रादि रूप पुद्गल द्रव्य; ये सव्यतिरिक्त नोकर्माकर्मवर्गणा और नोकर्मवर्गणा को तव्यतिरिक्त द्रव्य- नन्त कहलाते हैं। वर्गणा कहा जाता है।
तव्यतिरिक्त परीषह-ताभ्यां ज्ञशरीर भव्यशतव्यतिरिक्त द्रव्यानन्त-जं तं तन्वदिरित्तदव्वा- रीराभ्यां व्यतिरिक्तः पृयग्भूतः तद्व्यतिरिक्तः, स च तं तं दविहं-कम्माणतं णोकम्माणंतमिदि। (घव. प्रकृतत्वात् द्रव्यपरीषहो भवेत् । (उत्तरा.नि. शा.
वृ. ७२)।
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