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तदुभयकल्पिक ]
७-२३) । ४. किंचित्कर्माऽऽलोचनमात्रादेव शुद्धघ त्यपरं प्रतिक्रमणेनेतरं [रत् ] दुःस्वप्नादिकं तदुभयसंसर्गेण शुद्धिमुपयाति । (चा. सा. पृ. ६२) । ५. उभयं आलोचन-प्रतिक्रमणे संसर्गदोषे सति विशोधनात्तदुभयम् । (मूला. वृ. ११ - १६) । ६. स्यात्तदुभयमालोचना-प्रतिक्रमणद्वयम् । दुःस्वप्नदुष्टचिन्तादिमहादोषसमाश्रयम् || ( श्राचा. सा. ६-४२) । ७. दु:स्वप्नादिकृतं दोषं निराकर्तुं क्रियेत यत् । प्रालोचनप्रतिक्रान्तिद्वयं तदुभयं तु तत् ॥ (अन. घ. ७, ४८)।
२ प्रालोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों का सम्बन्ध होने पर जो श्रात्मशुद्धि होती है उसे तदुभय प्रायचित्त कहते हैं । तदुभयकल्पिक - तदुभयकप्पियजुत्तो तिगम्मि एगाहिगे ठाणेसु । णियधम्मऽवज्जभीरु प्रवम्मं श्रज्ज - वहिहि || (बृहत्क ४०९) । जो एक अधिक तीन स्थानों में- सूत्र में, सूत्र व श्रर्थ उभय में तथा सूत्र, अर्थ व उभय इन तीनों में - युक्त है अर्थात् उनके ग्रहण करने में समर्थ है उसका नाम तदुभयकल्पिक है। 'प्रियधर्म' से प्रियधर्मा, दृढधर्मा, प्रियधर्मा-दृढधर्मा तथा न प्रियधर्मा न दृढधर्मा ये चार भंग अभिप्रेत हैं। इनमें चौथा भंग वस्तुस्वरूप है, अतः उसे छोड़कर शेष तीन भंगों में जो युक्त है वह तदुभयकल्पिक कहलाता है, जो पाप से भयभीत होता ही है। यहां प्रायं वज्र का उदाहरण है । तदुभयप्रत्ययिक - श्रजोवभावबन्ध - जे दोहि वि कारणेहि (मिच्छत्तासं जमकसायजोगेहितो तेहि विणा वि) समुपण्णा तेसि तदुभयपच्चइयो प्रजीवभाव
धोत्ति सण्णा । ( धव. पु. १४, पृ. २३) । जो प्रजीवभाव मिथ्यात्वादि कारणों से और उनके बिना भी दोनों ही प्रकार से उत्पन्न होते हैं, उनका नाम तदुभयप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध है । तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध - कम्माणमुदयउदीरणाहितो तदुवसमेण च जो उप्पज्जइ भावो सो तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो णाम । ( धव. पु. १४, पृ. १०) ।
जो जीवभाव कर्मों के उदय और उदीरणा से तथा उनके उपशम से भी उत्पन्न होता है उसका नाम तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध
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४८३, जैन-लक्षणावली
[ तद्भवमरण
तदुभयवक्तव्यता -- जत्थ दो वि परूवेऊण परसमय दूसिज्जदि ससमयो थाविज्जदि सा तद्भयवत्तव्वदा णाम । ( धव. पु. १. पू. ८२) । जहां स्वसमय और परसमय दोनों की ही प्ररूपणा करके परसमय को दूषित और स्वसमय को स्थापित किया जाता है उसका नाम तदुभयवक्तव्यता है ।
तदुभयाचार - शब्दार्थशुद्धया पाठादि तदुभयाचार: । (मूला. व. ५-७२ ) ।
शब्द और अर्थ की शुद्धि के साथ पाठ श्रादि के करने को तदुभयाचार कहते हैं । तदुभयार्ह - तदुभयारिहं जं पडिसेविय गुरुणो श्रालोइज्जइ गुरुसंदिट्ठो य पडिक्कमइत्ति पच्छा मिच्छा दुक्कडं ति भणइ, एयं तदुभयारिहं । ( जीतक. चू. पृ. ६) ।
जिस दोष का सेवन कर गुरु के समक्ष प्रालोचना करता है, गुरु का सन्देश पाकर प्रतिक्रमण करता है, तथा पीछे 'मेरा दुष्कृत मिथ्या हो' यह कहता है, वह तदुभयार्ह कहा जाता है । तद्भवमररण- १. तब्भवमरणं जो जमि भवग्गहणे मरति रइयभवग्गणादि । ( उत्तरा चू. ५, पु. १२७) । २. तद्भवमरणं भवान्तरप्राप्त्य- (चा. सा. 'प्तिर' - ) नन्तरोप श्लिष्टं पूर्वभवविगमनम् । (त. वा. ७, २२, २; चा. सा. पृ. २३) । ३. भवान्तरप्राप्तिरनन्तरोपसृष्टपूर्वं भवविगमनम् । ( भ. प्रा. वि. जयो. २५; भावप्रा. ३२ ) । ४. मोत्तुं प्रकम्मभूमिय नर-तिरये सुरगणे य नेरइये । सेसाणं जीवाणं तब्भवमरणं च केसिचि ।। ( प्रव. सारो. १०१२; स्थाना. श्रभय. वृ. १०२ उद्) । ५. यस्मिन् भवे वर्तते जन्तुस्तद्भव योग्यमेवायुर्बद्ध्वा पुनप्रियमाणस्य मरणं तद्भवमरणम् । एतच्च संख्यातायुष्कनर- तिरश्चामेव, तेषामेव हि तद्भवायुर्बन्धो भवतीति । (स्थाना. अभय. वृ. २, ४, १०२, १.८९ ) । ६. भुज्य - मानायुषश्चरमसमये मरणं तद्भवमरणम् । (म. प्रा. मूला. २५) ।
१ जो जिस भवग्रहण में मरता है वह तद्द्भवमरण कहलाता है । जैसे- नारकभवग्रहण आदि । २ भवान्तरप्राप्ति के अनन्तर पूर्व भव का जो विनाश होता है उसे तद्भवमरण कहा जाता है । ४ श्रकर्मभूमिज (भोगभूमिज ) मनुष्य, तिर्यंच, देवगण और नार
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