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कुक्षि] ३५८, जैन-लक्षणावली
[कुन्थु मध्य में कोल मात्र होती हैं, उसे कोलिकासंहनन ज्ञान को कुतर्क कहते हैं। कहते हैं।
कत्सा-परकीयकूल-शीलादिदोषाविष्करणावक्षेपकुक्षि-देखो किष्कु । १. अडयालीसं अगुलाई भर्त्सनप्रवणा कुत्सा। (त. वा. ८, ९, ४) । कुच्छी । (व्याख्याप्र. ६-७, पृ. ८२६)। २. दो दूसरे के कुल-शील आदि के विषय में दोष के प्रकट रयणीयो कुच्छी । (अनुयो. सू. १३३) । ३. रत्नि- करने तथा उनके कार्य में विघ्न डालने व झिड़कने द्वयं कुक्षिः । (अनुयो. सू. मल. हेम. वृ. १३३, पृ. प्रादि को कुत्सा कहते हैं। १५८)।
कुदृष्टि-१. मदि-सुदणाणबलेण दु सच्छंदं बोलए १ अड़तालीस अंगुल अधवा रत्नि प्रमाण कुक्षि जिणुत्तमिदि। जो सो होइ कुदिट्ठी xxx ॥ (एक क्षेत्रप्रमाण) होती है।
(रयणसार ३) । २.XXX कुदृष्टिर्यः स सप्तकुगुरु-१. सग्रन्थारम्भहिंसा: संसारावर्तवर्तिनः भिर्भययुतः । (लाटोसं. ४-१८)। पाखण्डिनः कुगुरुव: । (फलित लक्षण-रत्नक. १ जो अपने मति-श्रुतज्ञान के दर्प से जिनोक्त कह १४)। २. सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः। कर स्वच्छन्द कथन करे, उसे कुदृष्टि कहते हैं। अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु ॥ (योगशा. कुदेव-ये स्त्री-शस्त्राक्षसूत्रादि रागाद्यङ्ककलङ्कि२-६)। ३. कुगुरुः कुत्सिताचारः सशल्यः सपरि- ताः। निग्रहानुग्रहपरास्ते देवाः स्युन मुक्तये ।। ग्रहः । (लाटीसं. ४-१२३; पञ्चाध्यायी २-६०४)। (योगशा. २-६)। १ ग्रन्थ (परिग्रह) और प्रारम्भ से सहित पाखण्डी जो राग-द्वेष-मोह के चिह्नत स्त्री, शस्त्र, अक्ष
-वेषधारी साधु-कुगुरु कहलाते हैं । २ जो सब सूत्र (जपमाला) और राग-द्वेषादि से कलंकित कुछ चाहते हैं, सब कुछ खाते हैं, परिग्रह से ग्रसित होकर दूसरों का निग्रह व अनुग्रह करने में तत्पर रहते हैं, ब्रह्मचर्यविहीन होते हैं, और मिथ्या उप- रहते हैं, वे देव नहीं हो सकते-वे कुदेव हैं जो देश दिया करते हैं; वे गुरु नहीं हो सकते-उन्हें मुक्ति के कारण नहीं हो सकते। अगुरु या कुगुरु जानना चाहिए।
कुधर्म-मिथ्यादृष्टिभिराम्नातो हिंसाद्यैः कलुषीकृञ्चितदोष-करामर्शोऽथ जान्वन्तः क्षेपः शीर्षस्य कृतः । स धर्म इति वित्तोऽपि भवभ्रमणकारणम् ॥ कुञ्चितम् । (अन. घ. ८-१०७)।
(योगशा. २-१३)। हाथ से शिर के प्रामर्श (स्पर्श) करने को कुञ्चित मिथ्यादृष्टियों से प्ररूपित होता हा जो हिंसादि दोष कहते हैं। अथवा दोनों जंघात्रों के मध्य में पापाचरणों से मलिनता को प्राप्त है. वह मध. शिर के रखने को कुञ्चित दोष कहते हैं । यह ३२ बुद्धियों में धर्मरूप में प्रसिद्ध होकर भी वस्तुतः धर्म वन्दनादोषों में २२वां दोष है।
नहीं है-कुधर्म है और वह संसारपरिभ्रमण का कूड़य-- जिणहरघरायदणाणं ठविदोलित्तीनो ही कारण है। कुड्डा णाम । (धव. पु. १४, पृ. ४०)।
कुधर्मकांक्षा- रत्तवड-चरग-तावस-परिहत्तादीणजिनगह घर और प्रायतन की स्थापित प्रोलित्तियां मण्णतित्थीणं । धम्मम्हि य अहिलासो कूधम्मकंखा (?) कुड्य कहलाती हैं।
हवदि एसा ।। (मूला. ५-५४) । कुडयदोष-१. कुड्यमाश्रित्य कायोत्सर्गेण यस्ति- रक्तपट (वैभाषिक, सौत्रान्तिक. योगाचार और ष्ठति तस्य कुडयदोषः। (मला. वृ ७-१७१)। माध्यमिक), चरक (नयायिक-वैशेषिक. तापम २. कुडयमवष्टभ्य स्थानं कुडयदोषः (योगशा. स्वो. (कन्दमलाहारी, जटाधारी साध) और परिवाजक विव. ३-१३०)।
(सांख्यमतावलम्बी) आदि अन्य तीथिकों के धर्म १कुड्य (भित्ति) का पालम्बन लेकर कायोत्सर्ग से की अभिलाषा करने को कुधर्मकांक्षा कहते हैं। स्थित होना, यह कुड्यदोष कहलाता है ।
कन्थु-कुः पृथ्वी, तस्यां स्थितवानिति निरुतात कतर्क-अन्यथा सम्भवज्ञानं कुतर्को भ्रान्तिकार- कुन्थुः, तथा गर्भस्थे जननी रत्नानां कुन्थं राशि णम् । (प्रमाणसं. १५)।
दृष्टवतीति कुन्थुः। (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४)। अन्य प्रकार होने वाले तथा भ्रम के कारणभूत 'कु' नाम पृथिवी का है, सत्तरहवें तीर्थंकर भगवान
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