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दण्यार्थिकनिक्षेप] ५६२, जैन-वक्षणाबली
[द्रव्यावश्यक ग्यमभेदोऽन्वय उत्सर्गोऽयों विषयो येषां ते द्रव्याथि- विषय को ग्रहण करता है उसे द्रव्याथिक नंगममय काः । (लघीय. अभय. व. ३०, पृ. ५१)। १४. द्रव्यं कहते हैं । सामान्यम् उत्सर्गः अनुवृत्तिरिति यावत्, द्रव्यम् द्रव्यावग्रह-१. चेयणमचित्त मीसग दव्वा खलु अर्थो विषयो यस्य स द्रव्याथिकः । (त. वृत्ति श्रुत. उग्गहेसु एएसु । जो जेण परिम्गहिरो सो दवे उग्ग१-३३)। १५. द्रव्यं सन्मुखतया केवलमर्थः प्रयो- हो होइ॥ (बहत्क. ६८१)। २. सचित्तादिद्रव्याजनं यस्य । भवति द्रव्याथिक इति नयः स्वधात्वर्थ- वग्रहणं द्रव्यावग्रहः। (प्राव. नि. हरि. व. १२२१, संज्ञकश्चकः । (पञ्चाध्या. १-५१८)।
पृ. ५४६)। ३. द्रव्यस्य मुक्ताफलादे रवग्रहणं द्रव्याव१ जिसका प्रयोजन द्रव्य है, अर्थात् जो द्रव्य ग्रहः । (प्रव. सारो. व. १२६)। (सामान्य) को विषय करता है उसे द्रव्याथिकनय १ देवेन्द्र, राजा, गहपनि, सागारिक और सामिक कहते हैं। १२ जो विविध पर्यायों को वर्तमान में इन पांच प्रवग्रहों में जो चेतन-स्त्री-पुरुषादिक, प्राप्त करता है, भविष्य में प्राप्त करेगा, और अचेतन-वस्त्र-पात्रादि-और मिश्र-अलंकारजिसने भूतकाल में उन्हें प्राप्त किया है, उसका युक्त स्त्री-पुरुषादि-द्रव्य हैं, वे तत् तत् (देवेन्द्र नाम द्रव्य है। इस द्रव्य को विषय करने वाला प्रादि) द्रव्यावग्रह कहलाते हैं। २ सचित्त प्रादि नय द्रव्याथिक नय कहलाता है।
द्रष्य के प्रवग्रहण का नाम द्रव्याव ग्रह है। नाम व द्रव्याथिकनिक्षेप-द्रवति अतीतानागतपर्यायान- स्थापनादि के भेद से छह प्रकार के प्रवग्रह में यह धिकरणत्वेन अविचलितरूपं स (सत) गच्छतीति तीसरा है।। द्रव्यम्, तच्च भूत-भाविपर्यायकारणत्वात् चेतनम- द्रव्यावधिमरण-किमुक्तं मवति ? अवधि: चेतनं वा अनुपचरितमेव द्रव्याथिकनिक्षेपः । मर्यादा, ततश्च यानि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽय:(सन्मति. अभय. वृ. ६, पृ. ३८७)।
कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते पुनर्यदि तान्येवानुभूय जो स्थिर स्वरूप (ध्रवना) को प्राप्त होता हा मरिष्यति तदा द्रव्यावधिमरणम्, तद्रव्यापेक्षया भूत और भविष्यत् काल की पर्यायों को प्राधार पुनस्तद्ग्रहणावधेर्यावज्जीवस्य मृतत्वात्, सम्भवति रूप से प्राप्त होता है उसका नाम द्रव्य है। वह हि गृहीतोज्झितानामपि कर्मदलिकानां पुनर्ग्रहणं चेतन अथवा प्रचेतन द्रव्य ही निश्चय से भत और परिणामवैचित्र्यादिति । (प्रव. सारो.व. १००६, भावी पर्यायों का कारण होने से अनुपचरित पृ. २६६)। द्रव्याथिकनिक्षेप कहलाता है। उदाहरण के रूप में प्रवधिका अर्थ मर्यादा होता है। नारक प्रादि शब्द के कृतक (अनित्य) होने पर भी वह संकेत भव के कारण रूप से जिन प्राय कर्म के प्रदेशों का द्वारा जिस-जिस अर्थ में नियक्त किया जाता है अनभव करके मरता है, वह यदि फिर से उन्हीं उस-उस अर्थ में वह वाचक रूप से प्रवृत्त का अनभव करके मरेगा तो यह द्रव्यावधिमरण होता है। इस प्रकार द्रव्य के सदृश होने से कहलाता है। कारण यह है कि उन द्रव्यों की वह द्रव्याथिक निक्षेप है। कारण यह कि वाच्य अपेक्षा उनके फिर से ग्रहण होने तक जीव मरण
और वाचक एवं उनके सम्बन्ध के नित्य होने से को प्राप्त होता है। इसका भी कारण यह है कि द्रव्यार्थता वहां है ही।
परिणामों की विचित्रता से जिन कर्मप्रदेशों को द्रव्याथिकनैगम-१. सर्वमेकं सदविशेषात्, सर्व ग्रहण करके छोड़ दिया है उनका फिर से ग्रहण द्विविधं जीवाजीवभेदादित्यादियुक्त्यवष्टम्भबलेन होना सम्भव है। विषयी कृतसंग्रह व्यवहारनयविषयः द्रव्याथिकनेगमः। द्रव्यावश्यक-१. तत्र द्रवति गच्छति तांस्तान् (जयध. पु. १, प. २४४)। २. न एकगमो नैगम पर्यायानिति द्रव्यं, द्रव्यं च तदावश्यकं च द्रव्यावइति न्यायात् Xxx (शुद्धाशुद्ध) द्रव्याथिकनय- श्यकम, भावावश्यककारणमित्यर्थः । (अनयो. हरि. द्वयविपयः द्रव्याथिकनेगमः । (धव. पु. ६, पृ. व. पृ.८)। २. तत्र द्रवति गच्छति तांस्तान् पर्या१८१)।
यानिति द्रव्यम्-विवक्षितयोरतीत-भविष्यद्भावयोः १ जो संग्रह और व्यवहार इन दोनों नयों के कारणम्, अनुभूतविवक्षित भावमनुभविष्यद्विवक्षित.
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