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[ तिर्यक्सामान्य
१ जिस नामकर्म के उदय से शरीरगत पुद्गल तिक्त रसस्वरूप से परिणत होते हैं वह तिक्त नामकर्म कहलाता है । ३ जिसके उदय से प्राणियों के शरीर में मिर्च श्रादिकों के समान तीखा रस होता है उसे तिक्त नामकर्म कहते हैं ।
तिरोभाव - तिरोभावस्तु सन्तानरूपेणावस्थितो वैस्रसिको विनाश एवादिलक्षण: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७–७) ।
सन्तान रूप से अवस्थित आदि स्वरूप ( सादि ) वैत्रसिक ( स्वाभाविक ) विनाश को ही तिरोभाव कहते हैं ।
तापस- १. बाह्यव्रत- विद्याभ्यां लोकदम्भ हेतुस्तापसः | ( नीतिवा. १४- १२. पू. १७३) । २० तापस × × × जे जडिला ते उ तावसा गीया । ( प्रव. सारो. ७३२) ।
तिर्यक्प्रचय- १. प्रदेशप्रचयो हि तिर्यक्प्रचयः । ( प्रव. सा. अमृत. वू. २- ४९ ) । २. स च प्रदेशप्रचयलक्षणस्तिर्यक्प्रचय: । ( प्रव. सा. जय. व्. २-४ε)।
१ बाहिरी व्रत और विद्या के द्वारा जो लोगों के ठगने में कारण ( वंचक) होता है वह तापस कहलाता है । २ जटाधारी वनवासी पाखण्डी साबुनों को तापस कहते हैं । ताल–तालस्तु कंसिकादिशब्दविशेषः । ( अनुयो तिर्यक् सामान्य - १० तिर्यक् सामान्य नानाद्रव्येषु
१ प्रदेशों के समुदाय को - जैसे श्राकाश आदि के श्रनन्त श्रादि प्रदेशों को— तिर्यक्प्रचय कहते हैं ।
मल. हेम. वृ. १२७, पृ. १३२) । कंसिका (एक बाजा) श्रादि के विशेष शब्द को कहते हैं ।
पर्यायेषु च सादृश्यप्रत्ययग्राह्यं सदृशपरिणामरूपम् । ( युक्त्यन. टी. ४०, पू. ० ) । २. सदृशपरिणामस्तिर्यक् । ( परीक्षा. ४ - ४ ) । ३. प्रतिव्यक्ति तुल्या परिणतिस्तिर्यक्सामान्यम्, शबल- शाबलेयादिपिण्डेषु गोत्वं यथा । (प्र. न. त. ५ - ४ ) । ४ तिर्यक्सामान्यं च गवादिषु सदृशपरिणामात्मकम् । (स्याद्वादर. ३ - ५ ) । ५. परिणामः समस्तिर्यक् खण्ड-मुण्डादिगोषु वा । गोत्वं विशेषः पर्याय- व्यतिरेकद्विभेदवान् ॥ श्राचा. सा. ४-५ )। ६. तिर्यक्सामान्यं च गवःदिषु गोत्वादिस्वरूपसदृशपरिणामात्मकम् । ( रत्नाकरा. ३-५, पृ. ३ जद्.) ; तिर्यगुल्लेखिनाऽनुवृत्ताकारप्रत्ययेन गृह्यमाणं तिर्यक्सामान्यम् । (रत्नाकरा. ५-४, पृ. ७४ उद्.) । ७. सामान्यं सदृशपरिणामलक्षणं तिर्यक्सामान्यम् । ( लघीय. अभय वू. पू. ६७) ।
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१ अनेक द्रव्यों व पर्यायों में जो सादृश्यज्ञान का विषयभूत सदृश परिणाम पाया जाता है उसे तिर्यक्सामान्य कहा जाता है । ३ प्रत्येक व्यक्ति में जो समान परिणाम होता है उसका नाम तिर्यक्सामान्य है - जैसे शबल (चितकबरी) एवं शाबलेय आदि विभिन्न गायों में पाया जाने वाला गोत्वसास्ना (गले के नीचे लटकती चमड़ी ) ।
तापस ]
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४ कष (देखो
१ निन्दा आदि के निमित्त से हुए जो तीव्र पश्चात्ताप होता है है । ३ शोक के फलस्वरूप जो होती हैं उसे ताप कहा जाता है कषशुद्ध' शब्द) और छेद का कारण जो परिणमनशील विवक्षित जीवादि पदार्थ है उसके बाद ( निरूपण ) का नाम ताप है । ७ प्रताप नामकर्म के उदय से सूर्यमण्डलों का जो उष्ण प्रकाश होता है उसे ताप कहते हैं ।
४६१, जैन-लक्षणावली
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कलुषितचित्त होते उसका नाम ताप
शरीर में पीड़ा
तालसम — यत्परस्पर/भिहत हस्ततालस्वरानुसारिणा स्वरेण गीयते तत्तालसमम् । (अनुयो मल. हेम. वृ. १२७, पृ. १३२ ) ।
परस्पर श्राहत हाथों की ताली के स्वर का अनुसरण करने वाले स्वर से जो गाया जाता है उसका नाम तालसम है ।
तिक्त - १. श्लेष्मादिदोषहन्ता तिक्तः । ( धनुयो हरि. वृ. पू. ६० ) । २. श्लेष्मशमनकृत् तिक्तः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ५-२३) ।
१ कफ आदि दोषों के नाशक रस को तिक्त कहते हैं । तिक्तनाम- १. जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपो गला तित्तरसेण परिणमति तं तित्तं णाम । (घवः पु. ६, पृ. ७५ ) । २. यस्य कर्मण उदयेन शरीर पुद्गलास्तिक्तरसस्वरूपेण परिणमन्ति तत्तिक्तनाम | (मूला. वू. १२ - १६४ ) । ३. तत्र यदुदयात् जन्तुशरीरेषु तिक्तो रसो भवति - यथा मरिचादीनाम् - तत्तिक्तरसनाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३-२६३, पू. ४७३) ।
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