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कायापरोत ]
त्वं निःसारताsशुचित्वमिति । ( त. भा. ७-७ ) । २. कायस्वभावोऽपि पितृमात्रोरोजः शुक्रमुभयमेकीभूतं गर्भजानां प्राणिनां शरीरतया परिणमत इत्यादिलक्षणः । सम्मूर्च्छनोपपातजन्मनां तूत्पत्तिदेशावगाढ़स्कन्धादाननिर्माणानि वपूंषि भवन्त्यशुभपरिणामभाञ्जि नानाकाराणि परिशटनोपचितिधर्मकत्वात् विनश्वराणीत्येवंलक्षण: कायस्वभावः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७-७ ) । १ श्रनित्यता, दुःखहेतुता, निःसारता और पवित्रता; यह काय (शरीर) का स्वभाव है । कायापरीत — कायापरीतोऽनन्तकायिकः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १८-२५३, पृ. ३६४) । अनन्तकायिक ( साधारणशरीरी) जीव कायापरीत कहलाता है ।
कायिक अशुभ योग - तत्राशुभो हिसा स्तेया ब्रह्मा-दीनि कायिक: । ( त. भा. ६-१ ) । हिंसा, चोरी और कुशील सेवनादिरूप प्रवृत्ति को कायिक अशुभ योग कहते हैं ।
कायिक समीक्ष्याधिकरण - कायिकं च प्रयोजनमन्तरेण गच्छंस्तिष्ठन्नासीनो वा सचित्तेतरपत्रपुष्प - फल छेदन - भेदन - कुट्टन क्षेपणादीनि कुर्यात्, अग्निविष क्षारादिप्रदानं चारभेत इत्येवमादि तत्सर्वमसमीक्ष्याधिकरणम् । (त. वा. ७, ३२, ५; चा. सा. पू. १० ) ।
प्रयोजन के विना चलते हुए, स्थित रहकर या बैठेबैठे सचित्त या चित्त पत्र, पुष्प और फल श्रादि का छेदना, भेदना, कूटना व फेंकना श्रादि कार्य करना तथा श्रग्नि, विष व क्षार आदि पदार्थों का देना; इत्यादि प्रकार के कार्यों के करने को कायिक समीक्ष्याधिकरण कहते हैं ।
कायिक द्रव्यक्रोधविवेक - देखो कषायविवेक । कुयाद्यकरणं कायिको द्रव्यतः क्रोधविवेकः । (भ. श्री. मूला. १६८ ) । भृकुटि श्रादि के नहीं चढ़ाने को द्रव्यतः कायिक विवेक कहते हैं ।
कायिक द्रव्यमानविवेक - देखो कषायविवेक । गात्रस्तब्धताद्यकरणं कायिको द्रव्यतो मानविवेकः । (भ. प्रा. मूला. १६८ ) । अहंकारयुक्त होकर शरीर की उद्धतता के न करने को द्रव्यतः कायिक मानविवेक कहते हैं ।
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[ कायिकी क्रिया
कायिक द्रव्यमायाविवेक - देखो कषायविवेक । अन्यत्कुर्वत इवान्यस्य कायेनाकरणं कायिकः । (भ. प्रा. मूला. १६८ ) ।
काय से अन्य कार्य करते हुए के समान अन्य कार्य के न करने को द्रव्यतः मायाविवेक कहते हैं । कायिक विनय - १. श्रब्भुट्ठाणं किदिश्रम्मं णवण अंजलीय मुंडाणं । पच्चूगच्छणमेत्ते पत्थिदस्सणुसाघणं चेव || णीचं ठाणं णीचं गमणं णीचं च असणं सयणं । आसणदाणं उवगरणदाण प्रोगासदाणं च ॥ परुिवकायसं फासणदा य पडिरूवकालकिरिया य । पेसणकरणं संथरकरणं उवकरण पडिलिहणं ॥ इच्चेवमादिश्रो जो उवयारो कीरदे सरीरेण । एसो काइविण जहारिहं साहुवग्गस्स ।। (मूला. ५, १७६ से १७) । २. किरियं श्रब्भुद्वाणं णवणंजलि ग्रासणुवकरणदाणं । एते पच्चुग्गमणं च गच्छमाणे अणुव्वजणं ।। कायाणुरूवमद्दणकरणं कालाणुरूवपडियरणं । संथारभणियकरणं उपयरणाणं च पडिलिहणं ॥ इच्चेवमाइ काइयविण रिसि सावयाण कायव्वो । जिणवयण मणुगणं तेण देसविरएण जहजोग्गं ॥ ( बसु. श्रा. ३२८-३०) ।
१ साधुओं के श्राने पर उठकर खड़े हो जाना, कृतिकर्म करना -- सिद्धादि भक्तिपूर्वक कायोत्सर्ग प्रावि करना, हाथ जोड़कर नमस्कार करना, सम्मुख जाना - अगवानी करना, जाते समय पीछे जाना, स्वयं नीचा स्थान ग्रहण करना, नीचे गमन करनागुरु के बायें अथवा पीछे चलना, गुरु की अपेक्षा नीचे श्रासन पर बैठना व सोना, उन्हें श्रासन प्रदान करना, उपकरण (शास्त्र आदि) देना, वसतिका श्रादि का देना, शारीरिक शक्ति के अनुसार शरीर का मर्दन करना, प्रतिरूपकालक्रिया - उष्णकाल में शीतक्रिया व शीतकाल में उष्णक्रिया करना, श्राज्ञापालन करना, चटाई श्रादि बिछाना तथा उपकरणों का प्रतिलेखन करना; इत्यादि जो साधुसमूह का शरीर से यथायोग्य उपकार किया जाता है उसका नाम कायिक विनय है । कायिकी क्रिया - १. प्रदुष्टस्य सतोऽभ्युद्यमः कायिकी क्रिया । ( स. सि. ६-५; त. वा. ६, ५, ८)। २. प्रदुष्टस्योद्यमो हन्तुं गदिता कायिकी किया । (त. श्लो. ६, ५, ६ ) । ३. योऽभ्युद्यमः प्रदुष्टस्य सतः सा कायिकी क्रिया । (ह. पु. ५८,
३४१, जन-लक्षणावली
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