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क्षेत्रचार] ३९६, जैन-लक्षणावली
[क्षेत्रपरिवर्तन जाता है, उस क्षेत्र को द्रव्यनिक्षेप से क्षेत्रचरण एक प्रदेश प्रवगाह वाले, दो प्रदेश अवगाह वाले, कहते हैं।
तीन प्रदेश प्रवगाहवाले, इस प्रकार असंख्यात प्रदेश क्षेत्रचार--क्षेत्रं पुनर्यस्मिन् क्षेत्रे चारः क्रियते अवगाह वाले परमाणुषों के समूह तक क्षेत्रवर्गणा यावद्वा क्षेत्र चर्यते स क्षेत्राचारः। (प्राचारा. नि. कही जाती है। शो. वृ. २४६, पृ. १८३)।
क्षेत्रधर्म-१. जो तस्साय-सभावोऽमुत्तादी खेत्त. जिस क्षेत्र में चार (गमन) किया जाता है, अथवा धम्मो सो ॥ (धर्मसं. ३१, पृ. २०) । २. यस्तस्य जितना क्षेत्र गतिका विषय बनाया जाता है, वह क्षेत्रस्यात्मस्वभावोऽमूर्तत्वादिकः स क्षेत्रधर्मः, धर्मः क्षेत्रचार कहलाता है।
स्वभाव इत्यनयोरनन्तिरत्वात् । (धर्मस. मलय. क्षेत्रज्ञ-क्षेत्रं स्वस्वरूपं जानातीति क्षेत्रज्ञः । व. ३१) । (धव. पु. १, पृ. १२०); षड्द्रव्याणि क्षियन्ति आकाशरूप क्षेत्र का जो प्रात्मस्वभाव-अमूर्तत्व निवसन्ति यस्मिन् तत्क्षेत्रम् षड्द्रव्यस्वरूपमित्यर्थः, प्रादि है-वह क्षेत्रधर्म कहलाता है। तज्जानातीति क्षेत्रज्ञः । अथवा प्रदेशज्ञः जीव इत्य- क्षेत्रपरावर्त-देखो क्षेत्रपरिवर्तन । लोग यमस्यार्थः, क्षेत्रज्ञशब्दस्य कुशलशब्दवत् जहत्स्वार्थ- एसा जया मरतेण एत्थ जीवेणं । पुट्ठा कमुक्कमेणं वृत्तित्वात् । (धव. पु. ६, पृ. २२१)।
खेत्तपरट्टो भवे थूलो ॥ जीवो जइया एगे खेत्तपयेजो प्रात्मस्वरूप को अथवा छह द्रव्य स्वरूप लोक- संमि अहिगए मरइ । पुणरवि तस्साणंतरि बीयपएक्षेत्र को जानता है वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है। संमि जइ मरए । एवंतरतमजोगेण सम्बखत्तंमि क्षेत्रज्ञान-क्षेत्रज्ञानं किमिदं मायाबहुलमन्यथा जइ मनो होइ। सुहुमो खेत्तपरट्टो अणुक्क मेण नणु वा ? तथा साधभिरभावितं भावितं वा नगरादीति गणेज्जा ।। (प्रंव. सारो. १०४४-४६)। विमर्शनम । (उत्तरा. नि. शा. ७.५८, पृ. ४०)। बादर और सूक्ष्म के भेद से क्षेत्रपरावर्त दो प्रकार क्या यह क्षेत्र मायाप्रचुर है अथवा उससे विहीन का है। जीव जब लोकाकाश के किसी एक प्रदेश है, तथा क्या वह साधु जनों से अधिष्ठित नगरादि पर मरकर तत्पश्चात् वह क्रम से या प्रक्रम से भी से रहित है या सहित है। इस प्रकार के विवेक लोकाकाश के समस्त प्रदेशों को अपने मरण से का नाम क्षेत्रज्ञान है। यह पाठ प्रकार की गणि- व्याप्त कर लेता है, तब उसका एक बादर क्षेत्रपरा. संम्पदा के अन्तर्गत सातवी प्रयोगमति सम्पदा के वर्त पूरा होता है। पर जब वह किसी एक लोकाचार भेदों में तीसरा है।
काश के प्रदेश को प्राप्त करके मरता है और क्षेत्रतः क्रमोत्तर-क्षेत्रत: (क्रमोत्तरं) एकप्रदे- तत्पश्चात् पुनः मरण को प्राप्त होकर जब वह गावगाडात द्विप्रदेशावगाढः, ततोऽपि त्रिप्रदेशाव- उसके द्वितीय प्रदेश को अपने मरण से व्याप्त गाढ, एवं यावदवसानववंसंख्येयप्रदेशावगाढः । करता है (बीच में यदि वह अन्यत्र मरता है, तो (उत्तरा. नि. वृ. १, पृ. ४)।
वह गिनती में नहीं प्राता), इसी क्रम से वह यथाक्षेत्र की अपेक्षा एक प्रदेश प्रवगाढ़ क्षेत्र से दो क्रम से उस लोक के तृतीय-चतुर्थ प्रादि प्रदेशों को प्रदेश प्रवगाढ क्षेत्र, उससे भी तोन प्रदेश प्रवगाढ़ अपने मरण से व्याप्त करता हया जब उसके समस्त क्षेत्र इस प्रकार अन्तवर्ती असंख्यात प्रदेश प्रवगाढ़ ही प्रदेशों को मरण से व्याप्त कर लेता है तब क्षेत्र पर्यन्त यह सब क्षेत्रतः क्रमोत्तर कहलाता है। उसका सूक्ष्म क्षेत्रपरावर्त पूरा होता है। क्षेत्रतः जीव-क्षेत्रतोऽसंख्येयप्रदेशावगाढः । (प्राव. क्षेत्रपरिवर्तन-देखो क्षेत्रपरावर्त व परक्षेत्रमा नि. मलय. वृ. १२६, पृ. १३१) ।
१. सव्वम्हि लोयखेत्ते कमसो तण्णस्थि जण्ण उप्पजो असंख्यात प्रदेशों को अवगाहित किये हुए है, णं । उग्गाहणेण बहुसो परिभमिदो खेत्तसंसारे ।। वह क्षेत्रत: जीव कहालाता है।
(द्वादशानु. २६)। २. जत्थ ण जादो ण मदो क्षेत्रतः वर्गणा - क्षेत्रतः एकप्रदेशावगाढानां हवेज्ज जीवो अणंतसो चेव । काले तीदम्मि इमो यावदसंख्येयप्रदेशावगाढानाम् । (प्राव. हरि. व. ण सो पदेसो जए अस्थि ।। (भ. पा. १७७५) । ३६, पृ. ३४) ।
३. सूक्ष्मनिगोदजीवोऽपर्याप्तकः सर्वजघन्यप्रदेश
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