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चतुश्शरीरी जीव] ४३३, जैन-लक्षणावली
[चन्द्रप्रभ तुर्विंशतिस्तवः, तत्प्रतिपादकं शास्त्रमपि चतुर्विंशति- चतुष्पदसचित्तप्रधानोत्तर-चतुष्पदमनन्यसाधास्तव इत्युच्यते । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. रणशौर्य-धैर्यादियोगतः सिंहः । (उत्तरा. नि. ३६७)।
शा. वृ. १-१, पृ. ४)। १ नामनिरुक्ति के साथ वृषभादि चौबीस तीर्थ- अनुपम शौर्य एवं धीरता प्रादि से संयुक्त सिंह करों के गुणों का कीर्तन करते हुए मन, वचन, काय चतुष्पदसचित्तप्रधानोत्तर माना जाता है। को शुद्धिपूर्वक पूजा व प्रणाम करने को चतुर्विश- चत्वर-चत्वरं बहुरथ्यापातस्थानम् । (जीवाजी. तिस्तव कहते हैं।
मलय. वृ. ३, २, ४२, पृ. २५८)। चतुश्शरीरी जीव-चत्तारि सरीराणि जेसि ते जहां पर बहुत गलियां आकर मिलती हैं, उस चदुसरीरा । के ते? ओरालियावे उब्विय तेजा-कम्म- स्थान को चत्वर कहते हैं। इयसरीरेहि ओरालिय-ग्राहार-तेजा कम्मइयसरीरेहि चन्द्रप्रज्ञप्ति-१. चदपण्णत्ती णाम छत्तीमलक्खवा बट्टमाणा । (धव. पु. १४, २३८) ।
पचपदसहस्से हि ३६०५००० चंदायु परिवारिद्धिऔदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्मण अथवा गइ-बिंबुस्सेहवण्णणं कुणइ । (धव. पु. १, पृ. १०६); प्रौदारिक, प्राहारक, तैजस और कार्मण इन चार चन्द्रप्रज्ञप्तौ पंचसहस्राधिकषत्रिंशत्शतसहस्रपदायां शरीरों के साथ वर्तमान जीव चतुःशरीरी कह- चन्द्रबिम्ब-तन्मार्गायुःपरिवारप्रमाणं चन्द्रलोकः लाते हैं।
तद्गतिविशेषः तस्मादुत्पद्यमानचन्द्रदिनप्रमाणं राहुरःक्रियाकर्म-सम्वकिरियाकम्म चसिरं चन्द्रबिम्बयोः प्रच्छाद्य-प्रच्छादकविधानं तत्रोहोदि । तं जहा-सामाइयस्स आदीए जं जिणिदं त्पत्तेः कारणं च निरूप्यते । (धव. पु. ६, पृ. २०६)। पडि सीसणमणं तमेगं सिरं। तस्सेव अवसाणे जं २. चंदपण्णत्ती चंदविमाणाउ-परिवारिद्धि-गमणसीसणमणं तं विदियं सीसं । त्थोस्सामिदंडयस्स हाणि-बढि सयलद्ध-च उत्थभागग्गहणादीणि वणेआदीए जं सीसणमणं तं तदियं सिरं। तस्सेव अव- दि । (जयध. १, पृ. १३२)। ३. चन्द्रायुर्गतिवैभ. साणे जं णमणं तं चउत्थं सिरं । एवमेगं किरियाकम्म वादिप्रतिपादिका पंचसहस्रषत्रिंशत्लक्षपदपरिमाणा चसिरं होदि ।Xxxअथवा सव्वं पि किरिया- चन्द्रप्रज्ञप्तिः । (श्रुतभ. व. ६, पृ. १७४)। ४. तः कम्मं चदुसिरं चदुप्पहाणं होदि, अरहंत-सिद्ध-साहु- चन्द्रप्रज्ञप्तिः चन्द्रस्य विमानायुःपरिवार-ऋद्धिधम्मे चेव पहाणभूदे कादूण सव्वकिरियाकम्माणं गमन वृद्धि-हानि-सकलार्द्ध-चतुर्भागग्रहणाद्रीनि वर्णपउत्तिदसणादो। (धव. पु. १३, पृ. ८९-१०)। यति । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३६१)। सब क्रियाकर्म चतुःशिर होता है। यथा-सामा- ५. पंचसहस्राधिकषत्रिंशत्लक्षपदप्रमाणा चन्द्रायुर्गयिक के आदि में जो जिनेन्द्र देव को सिर नमाया तिविभवप्ररूपिका चन्द्रप्रज्ञप्तिः। (त. वृत्ति श्रुत. जाता है वह एक सिर है। उसी के अन्त में सिर १-२०)। ६. चंदस्सायुविमाणे परिया रिद्धी च नमाना, यह दूसरा सिर है। 'थोस्सामि' दण्डक के अयण गमणं च। सयलद्धपायगहणं वण्णेदि वि आदि में सिर नमाना, यह तीसरा सिर है। तथा चंदपण्णत्ती ।। (अंगप्र. २-२, पृ. २७४)। उसी के अन्त में नमस्कार करना, यह चौथा सिर १ चन्द्रमा के विमान, प्रायु-प्रमाण, परिवार, चन्द्र है। इस प्रकार एक क्रियाकर्म चतुःशिर होता है। का गमनबिशेष, उससे उत्पन्न होने वाले दिन-रात्रि xxx अथवा सभी क्रियाकर्म चतुःशिर अर्थात् का प्रमाण, राहु व चन्द्र विम्बों में प्रच्छाद्य-प्रच्छाचतुःप्रधान होता है; क्योंकि प्ररहन्त, सिद्ध, दकभाव और वहां उत्पन्न होने का कारण; इन साधु और धर्म को प्रधान करके सव क्रियाकर्मों सबकी जिसमें प्ररूपणा की जाती है वह चन्द्रप्रज्ञकी प्रवृत्ति देखी जाती है।
प्ति कहलाती है। चतष्क-चतुष्कं चतुष्पथयूक्तम् । (जीवाजी. मलय चन्द्रप्रभ-चन्द्रस्येव प्रभा ज्योत्स्ना सौम्यलेश्या७. ३, २, १४२, पृ. २५८) ।
विशेषोऽस्येति चन्द्रप्रभः, तथा देव्याश्चन्द्रपानदोहचार मार्गों से संयुक्त स्थान को चतुष्क कहते हैं। दोऽभूत, चन्द्र समवर्णश्च भगवानिति चन्द्रप्रभः ।
ल. ५५,
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