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चन्द्रमास]
(योगशा. स्वो विव. ३ - १२४ ) । जिनकी प्रभा -- सौम्य लेश्याविशेष- चन्द्रमा को ज्योत्स्ना (चांदनी) के सदृश थी, जिनकी माता को चन्द्रपान का दोहद उत्पन्न हुआ था, तथा जो चन्द्र के समान वर्णवाले थे; वे भगवान 'चन्द्रप्रभ' इस सार्थक नाम से प्रसिद्ध हुए । चन्द्रमास – एकोनत्रिंशद् दिनानि द्वात्रिंशच्च द्विषष्टिभागा २६ दिवसस्य चन्द्रमास: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ४-१५) ।
उनतीस दिन और एक दिन के बासठ भागों में से बत्तीस भाग (२६६३) प्रमाण काल को चन्द्रमास कहते हैं ।
चन्द्र संवत्सर - पुष्णिमपरियट्टा पुण बारस संवच्छरो हवइ चंदो । (ज्योतिष्क. २ - ३५) । बारह पूर्णिमानों के परिवर्तन काल को चन्द्रसंवत्सर कहते हैं ।
चयन १. सोधम्मिद। दिदेवाणं सगसंपयादो विरहो चयणं णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३४६) । २. चयनं कषायपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्रम् । ( स्थाना. अभय वृ. ४, १, २५०, पृ. १८४) ।
१ सौधर्म इन्द्र श्रादि देवों का अपनी सम्पत्ति से जो वियोग होता है वह चयन कहलाता है । चयनलब्धि - णामं - चयणविहि लद्धिविहिं च वण्णेदि, तेण चयणलद्धि त्ति गुणणामं । ( धव. पु. १, पृ. १२४ ) । चयनविधि श्रौर लब्धिविधि का वर्णन करने वाले वस्तु नामक अर्थाधिकार को चयनलब्धि कहते हैं । यह ग्रायणीय पूर्व का सार्थक नाम वाला पांचवां अधिकार है ।
चररणकुशील - १. कोउयभूतिकम्मे परिणापसिणे निमित्तमाजीवी । कक्ककुरुयाइ लक्खणमुवजीवति विज्ज- मंतादी ॥ ( व्यव. भा. १, पृ. ११७; प्रव. सारो. १११ ) । २. एतानि ( कौतुकादीनि ) य उपजीवति स चरणकुशीलः । ( व्यव. भा. मलय. व. १, पृ. ११७) । ३. कौतुक - भूतिकर्मणी प्रश्नाप्रश्नो निमित्तां प्राजीविकां कल्कुरुकां चः समुच्चये, लक्षणं विद्या मंत्रादिकं च य उपजीवति स चरणकुशीलः । ( प्रव. सारो. वृ. १११, पृ. २६) । १ जो कौतुक, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त श्राजी
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४३४, जैन - लक्षणावलो
[चरमसमयस योगिभ.
विका, कल्ककुरुका, लक्षण और विद्या मंत्रादि; इनका श्राश्रय लेता वह चरणकुशील कहलाता है । ( कौतुक श्रादि के लक्षण प्रव. सारो. गा. ११२-१५ में देखे जा सकते हैं ।) चरणपुलाक - १. मूलोत्तरगुणप्रति सेवनातश्चरणपुलाक: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-४६ ) । २. मूलोत्तरगुणप्रतिषेवणया चारित्रविराधनतश्चरणपुलाकः । ( प्रव. सारो. वू. ७२३, पृ. २१० ) ।
२ मूलगुणों और उत्तरगुणों की प्रतिसेवना के साथ चारित्र की विराधना करने वाले साधुनों को चरणलाक कहते हैं । चरणविनय - देखो चारित्रविनय । चररणानुयोग -- १. गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्ति-वृद्धि-रक्षाङ्गम् । चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति । ( रत्नक. ४५ ) । २. चरणादिस्तृतीयः स्यादनुयोगो जिनोदितः । यत्र चर्याविधानस्य परा शुद्धिरुदाहृता ॥ ( म. पु. २ - १०० ) । ३. ममेदं स्यादनुष्ठानं तस्यायं रक्षणक्रमः । इत्थमात्मचरित्रा rsनुयोगश्चरणाश्रितः ।। ( उपासका ९१८ ) । ४. उपासकाध्ययनादौ श्रावकधर्मम्, आचाराराधनादौ यतिधर्मं च यत्र मुख्यत्वेन कथयति स चरणानुयोगो भण्यते । (बृ. द्रव्यसं. ४२ ) । ५. सकलेतरचारित्रजन्मरक्षा विवृद्धिकृत् । विचारणीयश्चरणानुयोगश्चरणादृतैः ।। (न. ध. ३-११) ।
१. गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के विधान करने वाले अनुयोग को चरणानुयोग कहते हैं । चरमशरीर - चरमं संसारान्तर्वति तद्भवमोक्षकारण रत्नत्रयाराधकजीवसम्बन्धिशरीरं वज्रवृषभनाराचसंहननयुक्तं यस्यासौ चरमशरीरः । (गो. जी. मं. प्र. व जी. प्र. टी. ३७४) । संसार के अन्त में वर्तमान तथा तद्भव मोक्ष के कारणभूत रत्नत्रय की श्राराधना करने वाले जीव से सम्बद्ध ऐसे वज्रवृषभनाराचसंहनन युक्त शरीर के धारक को चरमशरीर या चरमशरीरी कहा जाता है ।
चरमसमयसयोगिभवस्थ केवलज्ञान - यत्स योगित्वावस्थायाश्चरमसमये वर्तमानं तत् चरमसमयसयोगिभवस्थ केवलज्ञानम् । (श्राव. मलय. वृ. गा. ७८, पृ. ८३) ।
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