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चलदोष] ४३६, जैन-लक्षणावली
[चान्द्रसंवत्सर देश-कालानुसारेण संयमाविरोधि गमनं करोति, चर- २५)। ४. चलम् प्राप्तागम-पदार्थश्रद्धानविकल्पेषु णावरणरहितः कठिनशर्करोपलकण्टकमृत्खण्डपी- नानारूपेण चलतीति चलम् । यथा-स्वकारितेऽर्हडनसंजातपादबाधोऽपि बाधां न मन्यते, गृहस्थाव- च्चैत्यादौ देवोऽयं मे, अन्यकारिते अन्यस्यायमिति स्थोचितवाहनयानादिकानां न स्मरति, कालानुसारेण तथा सम्यक्त्वप्रकृतेरुदयात् चलम् । (कातिके. टी. षडावश्यकानां परिहाणि न करोति, तस्य मुनेश्चर्या- ३०८) । पहीषहजयो वेदितव्य: । (त. वृत्ति श्रुत. ३-६)। २ जो श्रद्धान प्रात्मीय अनेक विशेषों में चंचलता १ जो साधु दीर्घ काल तक ब्रह्मचर्यपूर्वक गुरुकुल को प्राप्त होता है वह चल दोष से दूषित होता में रहा है, जिसने बन्ध-मोक्षादि पदार्थों के रहस्यों है। जैसे- सभी प्ररहन्त अनन्त शक्ति सहित को जान लिया है। संयमपरिपालन और प्रायतन
__ होते हैं-हीनाधिक शक्ति वाले नहीं होते, फिर (धर्मस्थान) की भक्ति के कारण जो गुरु की भी भगवान् शान्तिनाथ इस शान्तिकार्य के लिए अनज्ञापूर्वक देशान्तर का अतिथि होता है-अन्य समर्थ हैं, अथवा भगवान् पार्श्वनाथ इस विघ्नदेश में जाता है, जो वायु के समान निःसंग-परि- विनाशनरूप कार्य के लिए समर्थ हैं, इत्यादि प्रकार ग्रह से रहित (निर्ममत्व) होता है, बहुत प्रकार का श्रद्धान।
दि तपों के कारण कृश शरीर को धारण चाण्डालिक-देखो चण्डालीक । करता है, देश व काल के प्रमाण के अनुसार जो चातुर्य-१. तच्चातुर्यं यत्परप्रीत्या स्वकार्यसाधमार्ग में गमन करता है,: संयमविरोधी मार्गगमन नम् । (नीतिवा. २७-५२) । का परित्याग करता है, पादावरण-पादुका- दूसरे को प्रसन्न करके जो अपना कार्य सिद्ध किया आदि से रहित होकर कठोर कंकड़ व कांटे आदि को जाता है, इसे चातुर्य कहते हैं। व्यथा से पादपीड़ा के होने पर भी पूर्वानुभुत चान्द्रमास-१. एकश्च पूर्णमासीपरावर्त एकरथादि के आश्रित होने वाले गमन का स्मरण नहीं श्चान्द्रमासः, तस्मिश्च चान्द्रमासे रात्रिदिवपरिमाकरता है, तथा समयानुसार प्रावश्यकों का परि- णचिन्तायामेकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वात्रिंशद द्वाषष्टि. पालन करता है। ऐसा साधु चर्यापरीषह का विजेता भागा रात्रिंदिवस्य । (सूर्यप्र. मलय. व. १, २०, होता है।
५६); एकस्मिश्चाद्रमासे अहोरात्रा एकोनत्रिशद् चलदोष-१. लसत्कल्लोलमालासु जलमेकमिव भवन्ति द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य । स्थितम् । नानात्मीयविशेषेषु चलतीति चलं यथा ॥ (सूर्यप्र. मलय. वृ. १०, २, ५६) । २. चंदो एगुण(अन. ध. २-६०) । २. चलं नानात्मीयविशेषषु तीसं विसट्रिभागा य बत्तीसं। (सर्यप्र. मलय. व. चलतीति चलम् । तद्यथा-सर्वेषामर्हतामनन्तशक्ति- १०, २०, ५७ उद.)। ३. चन्द्रे भवश्चान्द्रः, युगादो त्वे समानेऽपि अयं देवः शान्तिनाथः अस्मै शान्ति- श्रावण मासे बहलपक्षप्रतिपद प्रारभ्य यावत्पौर्णमासीकर्मणे समर्थः, एष पार्श्वनाथ प्रस्मै विघ्नविनाश- परिसमाप्तिस्तावत्कालप्रमाणश्चान्द्रो मास:, एकपो.. कर्मणे समर्थः इत्याद्याप्तश्रद्धानादिश्चलत्वम् । (गो. र्णमासीपरावर्तश्चान्द्रो मास इति यावत् । अथवा जी. म. प्र. टी. २५)। ३. तत्र चलत्वं यथा-नाना- चन्द्रचारनिष्पन्नत्वादुपचारतो मासोऽपि चन्द्रः ।(व्य. त्मीय विशेषेषु चलतीति चलं स्मृतम् । लसत्कल्लोल- व. भा. मलय. व. २-१५, पृ. ६) । मालासु जलमेकमवस्थितम् ।। नानात्मीयविशेषेषु ३ युग के प्रारम्भ में श्रावण मास सम्बन्धी कृष्ण
आप्तागम-पदार्थश्रद्धानविकल्पेषु चलतीति चलं पक्ष की प्रतिपदा से लेकर पौर्णमासी तक के कालस्मृतम् । तद्यथा--स्वकारितेऽहंच्चैत्यादौ देवोऽयं प्रमाण को एक चान्द्र मास कहा जाता है। इसका मेऽन्यकारिते। अन्यस्यायमिति भ्राम्यन् मोहाच्छा- अभिप्राय यह है कि एक पौर्णमासी के परिवर्तन को द्धोऽ५ चेष्टते ।।XXX अत्र दृष्टान्तमाह-नाना- चान्द्र मास कहते हैं। अथवा चन्द्र के संचार से कल्लोलमालासु जलमेकमवस्थितम्, तथापि नाना- उत्पन्न होने के कारण मास को भी चान्द्र मास रूपेण चलति, तथा मोहात् सम्यक्त्वप्रकृत्युदयात् कहा जाता है। श्रद्धानं भ्रमणं चेष्टते । (गो. जी. जी. प्र. टी. चान्द्रसंवत्सर-१. एवंप्रकारेण मासेन द्वादश
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