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द्रव्यपुरुष] ५५१, जैन-लक्षणावली
[द्रव्यप्रतिक्रमण होइ परियट्टो ॥ दम्वे सुहुमपरट्टो जाहे एगेण अह द्रव्यपुलाक-दव्वपुलामो पलंजि भण्णइ । (दशवं. सरीरेणं । फासे वि सम्बपोग्गल अणुक्कमेणं नणु चू. पृ. ३४६)।। गणिज्जा । (प्रव. सारो. १०४१-४३)। पलंजी-भूसा या पुपाल (धान्य के निकाल लेने पर एक जीव ने संसाररूप वन में भटकते हुए अनन्त
शेष रहे सूखे तृणों का समुदाय)-को द्रव्यपुलाक भवों में प्रौदारिक, वैक्रियिक, तेजस, कार्मण, भाषा,
कहते हैं। पानपान और मन इन सात के रूप में समस्त पुद्
द्रव्यपूजा-१. गन्ध-पुष्प-धूपाक्षतादिदानम् अहंदागलों को छकर-उनका उपभोग करके उन्हें
धुद्दिश्य द्रव्यपूजा। (भ. प्रा. विजयो. ४७)। छोड़ा । इस प्रक्रिया में उसका जितना काल व्य
२. वचोविग्रहसंकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । तत्र तीत हुप्रा उत्तने कालविशेष का नाम एक बादर
मानससंकोचो भावपूजा पुरातनः ॥ गन्ध-प्रसून द्रव्यपुदगलपरावर्त है। अथवा मतान्तर के अनसार सान्नाह्य दीपधुपाक्षतादिभिः । क्रियमाणाऽथवा ज्ञेया एक जीव के द्वारा सर्वलोकगत पुदगलों को प्रौदा- द्रव्यपूजा विधानतः ॥ (अमित. श्रा. १२, १२-१३)। रिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्नण इन चार शरीरों ३. दम्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दव्वपूजा के रूप में ग्रहण करके छोड़ देने पर एक बादर सा । (वसु. श्रा. ४४८) । ४. द्रव्यपूजाऽर्हदादीनुद्रव्यपुद्गलपरावर्त होता है। सूक्ष्म द्रव्यपदगल. द्दिश्य गन्धाक्षतादिदानम्। (अन. घ. २-११० परावर्त - कोई एक जीव संसार में परिभ्रमण
भ. प्रा. मला. टी. ७)। ५. सचित्ताचित्त-मिश्रेण करता हा उक्त औदारिक प्रादि शरीरों में से द्रव्यपूजा त्रिधा भवेत् । प्रत्यक्षमहदादीनां सचित्ताऽर्चा एक किसी शरीर के रूप में अन क्रम से समस्त जलादिमिः ।। तेषां तु यच्छरीराणां पूजनं सा परापुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें छोड़ता है। इसमें चना। यत् पुनः क्रियते पूजा द्वयोः सा मिश्रसंज्ञिका ।। उसका जितना काल लगता है उसे सक्षम पदगल- (धर्मसं. श्रा. ६, ९२-९३)। द्रव्यपरावर्त कहा जाता है। इस सूक्ष्म पुद्गल द्रव्य
१ अर्हत्-सिद्धादि को लक्ष्य बनाकर गन्ध, पुष्प, धूप परावर्त में जो पुद्गल मध्य में विवक्षित शरीर से और अक्षत आदि के देने का नाम द्रव्यपूजा है। अन्य शरीररूप से परिणत होते हैं उनकी गणना २ वचन और शरीर के संकोच को-उनके उस नहीं है, किन्तु जब-जब विवक्षित शरीर रूप से वे
प्रोर लगाने को द्रव्यपूजा कहते हैं। Xxx परिणत होते हैं तभी उनकी गणना की जाती है।
अथवा गन्ध, पुष्प, नैवेद्य, दीप और धूप प्रादि के प्राहारकशरीर चूंकि एक जीव के अधिक से अधिक द्वारा जो पूजा की जाती है वह द्रव्यपूजा कहचार वार ही सम्भव है, अत एव उसका पुद्गल
लाती है। परावर्त में उपयोग न होने से उसे उक्त शरीर के द्रव्यपूति- गंधाइगुणसमिद्धं ज दव्वं असुइगंघदव्व. साथ नहीं ग्रहण किया गया है।
जुयं । पूइत्ति परिहरज्जइ तं जाणसु दव्वपूइत्ति ॥
(पिण्डनि. २४४)। द्रव्यपरुष-१. पुंवेदोदयविशिष्टांगोपांगनामकर्मो- सगन्ध प्रादि गणों से समृद्ध होकर भी जो द्रव्य दयवशात् स्मश्रु-कूर्च-शिश्नादिलिगांकित शरीरो जीवः पीछे अपवित्र गन्धद्रव्य से संयुक्त होकर पूतिद्रव्यपुरुषः भवति । (गो. जी. म. प्र. टी. २७१)। दुर्गन्धयक्त-हमा है उसे द्रव्य पूति कहते हैं। यह २. वेदोदयेन निर्माण नामकर्मोदय युक्तांगोपांगनाम- भोजन सम्बन्धी १६ उद्गम दोषों में तीसरा है, कर्मोदयवशेन श्मश्रु कूर्च शिश्नादिलिंगांकितशरीर- जिसे छोड़ना चाहिए। प्रकृत पिण्डनिर्यक्ति में प्रागे विशिष्टो जीवो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भव- (२४५-४६) इसके लिए एक उदाहरण भी दिया चरमसमयपर्यन्तं द्रव्यपुरुषो भवति । (गो. जी. जी.
गया है। प्र. टी. २७१)।
द्रव्यप्रतिक्रमण- १. वास्तु-क्षेत्रादीनां दशप्रका१ वेद के उदय से युक्त अंगोपांगनामकर्म के उदय राणां उद्गमोत्पादनेषणादोषदुष्टानां वसतीनाम् के वश स्मश्र, कूर्च और शिश्न प्रादि चिह्नों से उपकरणानां भिक्षाणां च परिहरणम्, अयोग्यानां अंकित शरीर को द्रव्यपुरुष कहते हैं।
चाहारादीनां गृद्धदर्पस्य च कारणानां संक्लेश हेतूनां
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