SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 402
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पारञ्चिक ७०४, जैन-लक्षणावली [पारञ्चित धम्मियवज्जियखेत्ते समाचरेयव्वो। एत्थ उक्कस्सेण चिक प्रायश्चित्त है। ८ 'पारं अञ्चति' इस निरुक्ति छम्मासक्खवणं पि उवइठें। एदाणि दो वि पाय- के अनुसार अपराधी तप के द्वारा अपराध के पार च्छित्ताणि णरिंदविरुद्धाचरिदे पायरियाणं नव-दस- जाता है व तत्पश्चात् उसे पुनः दीक्षा दी जाती है, पुव्वहराणं होदि । (धव. पु. १३, पृ. ६२-६३)। इससे उसे पारांची या पारांचिक कहा जाता है। ४. सर्वगुणैः समग्रस्य देयं पारंचिकं भवेत् । व्युत्सृष्ट- उसके लिंग, क्षेत्र, काल और तप से बहिष्कृत करने स्यापि येनास्याशुद्धभावो न जायते । (प्रायश्चित्तस. रूप अनुष्ठान को भी पारांचिक कहा जाता है। ६-१५७) । ५. पारं अंचदि परदेसमेदि गच्छदि पारञ्चित-देखो पारञ्चिक । जदो तदो एसो। पारंचिगो त्ति भण्णदि पायच्छित्तं पारञ्ची-धर्मस्य पारं तीरमञ्चति गच्छति, तेन जिणमदम्मि ॥ (छेदपिण्ड २८२) । ६. स्वधर्मरहित- कारणेन पुरुषः पारञ्ची स्मृतः । (प्रायश्चित्त. ७, क्षेत्रे प्रायश्चित्ते पुरोदिते । चार: पारंचिकं जैनधर्मा- २७) । त्यन्तरतेर्मतम् ।। (प्राचा. सा. ६-६२)। ७. पारं- इस प्रायश्चित्त में अपराधी धर्म के पार (किनारे). चियारिहं-अञ्चु गइ-पूयणेसु ; पारं अञ्चइ तवाईणं जाता है, इससे वह पारंची कहलाता है। जम्मि पडिसेविए लिंग-खेत्त-कालविसिटाणं, तं पारं- पारमार्थिक नोकर्मद्रव्यक्षेत्र-पारमत्थियं णोकचियारिहं । (जीतक. चू. गा. ४, पृ. ६)। ८. पारं म्मदव्वखेत्तं पागासदव्वं । (धव. पु. ४, पृ. ७) । तीरं तपसा अपराधस्य अञ्चति गच्छति ततो दीक्ष्यते पारमाथिक नोकर्मद्रव्यक्षेत्र आकाश कहलाता है। यः स पाराञ्ची, स एव पाराञ्चिकस्तस्य यदनुष्ठानं पारमाथिक प्रत्यक्ष-देखो मुख्य प्रत्यक्ष । १. पारतच्च पाराञ्चिकं लिंग-क्षेत्र-काल-तपोभिर्बहिष्कर- माथिकं पुनरुत्पत्तावात्ममात्रापेक्षम् । (प्र. न. त. णम् । (जीतक. चू. वि. व्या. ६-२१, पृ. ३६)। २-१८)। २. परमार्थे भवं पारमाथिकं मुख्यम्, ६. तथा पारमन्तं प्रायश्चित्तानाम्, तत उत्कृष्टतर- आत्मसन्निधिमात्रापेक्षम्, अवध्यादि प्रत्यक्षमित्यर्थः । प्रायश्चित्ताभावातु, अपराधानां वा पारमञ्चति (रत्नाकरा. २-४); क्षय-क्षयोपशमविशेषविशिष्टगच्छतीत्येवंशीलं पाराञ्चि, तदेव पाराञ्चिकम् । मात्मद्रव्यमेवाऽव्यवहितं समाश्रित्य पारमार्थिकमेततच्च महत्यपराधे लिंग-कुल-गण-संघेभ्यो बहिष्कर- दवध्यादिप्रत्यक्षमुन्मज्जति, न पुनः सांव्यवहारिकमिणम् । (योगशा. स्वो. विव. ४-६०)। १०. यस्मिन वेन्द्रियादिव्यवहितमात्मद्रव्यमाश्रित्येति भावः । प्रतिसे विते लिंग-क्षेत्र-काल-तपसां पारमञ्चति तत् (रत्नकरा. २-१८) । ३. सर्वतो विशदं पारमाथिपाराञ्चितमहतीति पाराञ्चितम् । (व्यव. मलय. कं प्रत्यक्षम् । (न्यायदी. पृ. ३४)। ४. पारमावृ. १-५३) । थिकं त्वात्मसंनिधिमात्रापेक्षमबध्यादिप्रत्यक्षम् । १ एक प्राचार्य से तीसरे प्राचार्य तक अन्य प्राचार्यो (षड्दस. गु. वृ. ५५, पृ. २०८) । ५. स्वोत्पत्ताके पास पहंचाना, इसका नाम पारञ्चिक प्रायश्चित्त वात्मव्यापारमात्रापेक्षं पारमाथिकम् । (जैनत. प. है। ३ राजा के विरुद्ध आचरण करने पर जो ११८) । प्रायश्चित्त नौ-दस पूर्वो के धारक प्राचार्यों से कराया १जो ज्ञान अपनी उत्पत्ति में प्रात्मा मात्र की जाता है उसका नाम पारंचिक प्रायश्चित्त है। यह अपेक्षा करता है-इन्द्रियादि अन्य कारणों की प्रायश्चित्त सामिक जन से रहित क्षेत्र में कराया अपेक्षा महीं करता-उसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष जाता है। इसमें अपराधी प्राचार्य मुनियों के आश्रम कहते हैं। से अलग रहता है, उसे कोई भी साधु प्रतिवन्दना पारमाथिकप्रत्यक्षाभास-पारमाथिकप्रत्यक्षमिव नहीं करता, गुरु को छोड़कर वह अन्य सबसे मौन यदाभासते तत्तदाभासम् । (प्र. न. त. ६-२६)। रखता है, तथा उपवास, प्राचाम्ल पुरिमार्थ (निवि- जो पारमार्थिक प्रत्यक्ष के समान दिखता है, पर कृतिक तपविशेष), एकस्थान और निविकृति आदि वस्तुतः पारमार्थिक प्रत्यक्ष नहीं है, वह परमार्थिकके द्वारा रस, रुधिर एवं मांस को सुखाता है। प्रत्यक्षाभास कहलाता है। ५इस प्रायश्चित्त में चूंकि अपराधी दूसरे देश को पाराञ्चिक-देखो पारञ्चिक । जाता है, अत एव इसका नाम पारंचिक या पारा- पाराञ्चित-देखो पारञ्चित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy