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द्विगुसमास]
५६६, जैन-चक्षणावलो [द्वीन्द्रियजातिनामः द्विगुसमास-संख्यापूर्वकस्तत्पुरुषो द्विगुः समासः। चान्यतरराज्यनिवासिनः इतरराज्ये प्रवेश: xx यथापञ्चनदमित्यादि । (धव. पु. ३, पृ. ७)। ४ । (योगशा. स्वो. विध. ३-६२) । संख्या के साथ जो तत्पुरुष समास होता है वह शत्रुस्वरूप दो राजाओं के राज्य-भूमि अथवा द्विगसमास कहलाता है। जैसे-पञ्चनद (पांच कटक-का उल्लंघन करना, यह द्विडराज्यलंघन नदियों का समूह)।
नामक तीसरे प्राचार्याणवत का एक अतिचार है। द्विचरम-१. चरमत्वं देहस्य मनुष्यभवापेक्षया। द्वितीय मूलगुरण-कोहादिपगारेहिं एवं चिय द्वौ चरमो देही येषां ते विचरमाः। विजयादिभ्य- मोसविरमणं बितिम्रो । (धर्मसं.८५६)। ३च्युता अप्रतिपतितसम्यक्त्वा मनुष्येषत्वद्य संयम. प्रथम अहिंसावत के समान क्रोध व लोभ आदि माराध्य पुनर्विजयादिषूत्पद्य ततश्च्युताः पुनर्मनुष्य- किसी भी कारण से असत्य वचन नहीं बोलना. यह भवमवाप्य सिद्धयन्तीति द्विचरमत्वम् । (स. सि. साधु का दूसरा (प्रसत्यविरमण) व्रत है। ४-२६)। २. द्विचरमा इति ततश्युताः परं द्विर्ज- द्वितीया प्रतिमा-द्वो मासौ यावदखण्डितान्यविनित्वा सिद्धयन्तीति । (त. भा. ४-२७)। राषितानि च पूर्वप्रतिमानुष्ठानसहितानि द्वादशापि ३. द्विधरमत्वं मनुष्यदेहद्वयापेक्षम् । xxx द्वौ व्रतानि पालयतीति द्वितीया। (योगशा. स्वो. विव, चरमौ देही येषां ते द्विचरमाः, तेषां भावो द्विचर- ३-१४८)। मत्वम्, एतन्मनुष्य देहद्व यापेक्षमवगन्तव्यम्-विजया- दो माह तक पूर्व (प्रथम) प्रतिमा के अनुष्ठान दिभ्यः च्युता अप्रतिपतितसम्यक्त्वा मनुष्येषूत्पद्य सहित अखण्डित बारह व्रतों का परिपालन करना संयममाराध्य पुनविजयादिषूत्पद्य च्युता मनुष्यभव. ब उनकी विराधना न होने देना, यह दूसरी मवाप्य सिध्यन्ति इति द्विचरमदेहत्वम् । (त. वा. प्रतिमा है। ४, २६, २)।
द्वितीयोपशमसम्यक्त्व-तथोपशान्तमोहस्योपशम १ सत्र में चरमपने का निर्देश मनुष्यशरीर की श्रेणियोगतः। मोहोपशमजमौपशमिकं तु द्वितीयअपेक्षा से किया गया है। उसका अभिप्राय यह है कम् ।। (त्रि. पु. च.१,३,६०१)।। कि विजयादिक विमानों से च्युत होकर सम्यक्त्व उपशमणि के योग से जिसका मोह (दर्शनमोह) को न छोड़ते हुए जो मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं उपशान्त हो चुका है उसके जो मोह के उपशम से
और वहां संयम का परिपालन करके फिर से सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह द्वितीयोपशम सम्यविजयादि विमानों में उत्पन्न होते हैं, पश्चात् वहां क्त्व कहलाता है। से च्युत होकर पुनः मनुष्य होते हुए मुक्ति को प्राप्त द्विदल-द्विदलं मुद्ग-माषादिधान्यम् । (सा. घ.. होते हैं उनके दो मनष्यभवों की अपेक्षा द्विचरमता स्वो. टी. ५-१८)। सिद्ध है। २ जो विजयादि विमानों से च्युत होते मंग व उड़द प्रादि जिस धान्य के दो भाग हो हए दो बार मनुष्य जन्म लेकर मुक्ति को प्राप्त जाया करते हैं उसे द्विदल कहा जाता है। इसे करते हैं वे द्वि चरम कहलाते हैं।
कच्चे दूध, दही या छांछ के साथ मिलाने पर वह द्विज-द्विजः द्विजर्जातो मातृगर्भ जिनसमयज्ञानगर्भ जीवाश्रित हो जाने के कारण प्रभक्ष्य-खाने के चोत्पादात् द्विजः ब्राह्मण-क्षत्रिय-विशामन्यतमः । लिए अयोग्य-होता है। (सा. घ. स्वो. टी. २-१९)।
द्विपद-सचित्त-प्रधानोत्तर - द्विपदमनुत्तरपुण्यप्रमाता के गर्भ से मौर जैनागम के ज्ञानरूप गर्भ से कृतितीर्थकरनामाद्यनुभवनतः तीर्थकरः। (उत्तरा. जो दो बार जन्म लेते हैं ऐसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और नि. शा. वृ. १-१, पृ. ४)। वंश्यों में किसी को भी द्विज कहा जाता है। अनुपम पुण्य प्रकृतिरूप तीर्थकर नामकर्म का अनदिडराज्यलअन्न-देखो विरुद्ध राज्यातिक्रम । तथा भव करने वाले तीर्थकर द्विपद-सचित्त-प्रधानोत्तर द्विषोविरुद्धयोः राज्ञोरिति शेषः, राज्यं नियमिता कहे जाते हैं।
मिः कटकं वा, तस्य लङ्घनं व्यवस्थातिक्रमः। द्वीन्द्रियजातिनाम-१. जस्स कम्मस्स उदएण व्यवस्था च परस्परविरुद्धराजकृतव, तल्लङ्घनं - जीवाणं बीइंदियत्तणेण समाणत्तं होदि तं कम्म
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