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कृमिरागकम्बल]
३६७, जैन-लक्षणावली
[कृष्णपक्ष
भ्रमन्तो निर्हारलाला मुञ्चन्ति ताः कृमिसूत्रं भण्यते। १६-१८१)। तच्च स्वपरिणामरागरञ्जितमेव भवति । अन्ये भूमि को जोतकर खेती करने को कृषिकर्म कहते हैं। भणन्ति-ये रुधिरे कृमय उत्पद्यन्ते तान् तत्रैव कृषिकर्मार्य - १. हल-कुलिदन्तालकादिकृष्युपमृदित्वा कच वरमुत्तार्य तद्रसे याश्चिद् योगं प्रक्षिप्य करणविधानविदः कृषीवलाः कृषिकार्याः । (त. वा. पट्टसूत्रं रजयन्ति । स च रसः कृमि रागो मण्यते ___३, ३६, २)। २. हलेन भूमिकर्षणनिपुणः कृषिकर्माअनुत्तारीति, तत्र कृमीणां रागो रञ्जकरस: कृमि- यः । (त, वृत्ति श्रुत. ३-३६) । रागः। (स्थानां. अभय. वृ. ४, २, २६३,)। जो हल, कुलिक (एक विशेष जाति का हल१ मनुष्य प्रादि के रुधिर को लेकर और उसे किसी बरवर) और हंसिया प्रादि खेती के उपकरणों के योग से युक्त करके पात्र में तपाया जाता है। तब विधान को जानते हैं वे कृषिकर्मार्य कहलाते हैं । उसमें कृमि (विशेष जाति के कीड़े) उत्पन्न होते हैं। कृष्टि (किट्टी)--१. गुण से ढि अणंतगुणा लोभादी वे वायकी अभिलापा से छिद्रों द्वारा निकलकर इधर कोधपच्छिमपदादो। कम्मस्स य अणुभागे किट्टीए उधर पास में घूमते हैं। उनके मल और लार को लक्खणं एवं ।। (कसायपा. सू. १६५, पृ. ८०७) । कृमि-रागपद्र कहा जाता है। वह अपने परिणाम के २. किसं कम्मं कदं जम्हा तम्हा किट्री। एवं अनुसार रंग में रंगा हुया ही होता है। दूसरे कुछ लक्खणं । (कसायपा. चूणि पृ. ८०८)। ३. पूर्वापूर्वप्राचार्य इस प्रकार कहते हैं-उक्त रुधिर में जो स्पर्धकस्वरूपेणेष्टकापंक्तिसंस्थानसंस्थितं योगमुपकीड़े उत्पन्न होते हैं, उन्हें वहीं मल कर व कोसट्ट संहृत्य सूक्ष्म-सूक्ष्माणि खण्डानि निवर्तयति, तारो उतार कर-कचूमर निकाल कर उस रस में किट्रोपो णाम वच्चति । (जयध. प्र. प. १२४३)। कुछ योग को मिलाते हए जो वस्त्र को रंगा ४. कर्शनं कृष्टिः, कर्मपरमाणुशक्तेस्तनूकरणमित्यजाता है, उसे कृमिराग कहते हैं।
र्थः । अथवा कृष्यते तनूक्रियते इति कृष्टिः प्रतिकृमिरागकम्बल-१. कृमिभुक्ताहारवर्णतन्तुभि- समयं पूर्वस्पर्द्धक जघन्यवर्गणाशक्ते रनन्तगुणहीनशक्तिरुतः कम्बलः कृमिरागकम्बलः। (भ.पा. विजयो. वर्गणा कृष्टिरिति । (ल. सा. टी. २८४)। टी. ५६७) । २. कृमिभक्ताहारवर्णतन्तुभिरुतः ३ पूर्व पूर्व स्पर्द्धक स्वरूप से इंटों की पक्ति के कम्बलः कृमिरागकम्बलस्तस्येति संस्कृतटीकायां व्या- आकार में स्थित योग का उपसंहार करके जो ख्यानम् । टिप्पणके तु कृमि [कृमिभि] रात्यक्तरक्ता- सूक्ष्म सूक्ष्म खण्ड किये जाते हैं उन्हें कृष्टि कहते हैं। हाररंजिततन्तुनिष्पादितकम्बलस्येति । प्राकृतटीकायां कृष्टिकरणाद्धा- तिस्से कोधवेदगद्धाए तिणि पूनरिदमुक्तम्-उत्तरापथे चर्मरंगम्लेच्छविषये म्लेच्छा भागा-जो तत्थ पढमतिभागो अस्सकरणकरणद्धा, जलौकाभिर्मानुषरुधिरं गृहीत्वा भंडकेषु स्थापयन्ति विदियतिभागो किट्टीकरणद्धा। (धव. पु. ६, पृ. ततस्तेन रुधिरेण कतिपयदिवसोत्पन्नविपन्न कृमिके- ३७४; लब्धि. ४६)। णोर्णासूत्रं(?)रंजयित्वा कम्बलं वयन्ति, सोऽयं कृमि. क्रोधवेदककाल का द्वितीय विभाग कृष्टिकरणाद्धा रागकम्बल इत्युच्यते । (भ. प्रा. मूला. टी. ५६७)। कहलाता है। २ कीडों के द्वारा खाये गये भोजन के वर्ण वाले कृष्टिवेंदगद्धा-कोधवेदग द्वाए तदियतिभागो कितन्तुनों से जो कम्बल बनाया जाता है. उसे कृमि- द्विवेदगद्धा । (धव. पु. ६, पृ. ३७४) । रागकम्बल कहते हैं। xxxप्राकृत टीका में क्रोधवेदन का जितना काल है उसका तृतीय विभाग कहा गया है कि उत्तरापथ में चर्मरंग म्लेच्छदेश में -तीन भागों में से अन्तिम भाग-कृष्टिवेदन का म्लेच्छ जौकों के द्वारा मनुष्यों का रक्त निकाल कर काल है। उसे वर्तन में कुछ दिनों तक रखते हैं। जब उसमें कृष्णपक्ष-कृष्णपक्षो यत्र ध्रुवराहुः स्वविमानेन रक्त वर्ण के कीड़े पड़ जाते हैं, तब उसके द्वारा चन्द्रविमानमावृणोति, तेन योऽन्धकारबहुल: पक्षः स सूत को रंग कर जो कम्बल बुना जाता है उसे कृमि- बहुलपक्षः । (जम्बूद्वी. शा. वृ. १५२) । रागकम्बल कहते हैं।
जिस पखवाड़े में ध्र वराहु अपने विमान से चन्द्र के कृषिकर्म-कृषिभूकर्षणे प्रोक्त xxx। (म. पु. विमान को प्रावृत करता है, उस अन्धकारवाले
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