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पक्षधर्मता] ६५६, जैन-लक्षणावली
[पञ्चेन्द्रिय पक्षधर्मता-१. पक्षधर्मत्वं हि तज्जनकस्य हेतोः निवृत्त हो चुका है उसे पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक स्वरूपम् । (स्या. र. २-१,प.२६१) । २. तस्मिन् कहते हैं। (पक्षे) व्याप्य वर्तमानत्वं हेतोः पक्षधर्मत्वम् । पञ्चम महाव्रत-देखो परिग्रहत्यागमहाव्रत । (न्यायदी. पृ.८३)।
पञ्चम मूलगुरण-पंचमगो गामादिसु अप्प बहु१ पक्षधर्मता-हेतु का पक्ष में रहना, यह अनुमान विवज्जणे मेव ॥ (धर्मसं. हरि. ८६०) । के जनक हेतु का स्वरूप है। २ हेतु के पक्ष में
ग्राम, नगर अथवा वन प्रादि में थोड़े-बहुत-सभी रहने को पक्षधर्मता कहते हैं।
प्रकार के-परिग्रह का परित्याग करना, यह पक्षपात-पक्षपातस्तु बहुमान-तत्प्रशंसा-साहाय्य- साधुओं के प्राणातिपातविरति प्रादि मूलगुणों में करणादिना अनुकूला प्रवृत्तिः। (योगशा. स्वो. पांचवां मूलगुण है । विव. १-५३, पृ. १५७)।
पञ्चमी प्रतिमा-पञ्चमासांश्चतुष्पा गृहे तद्सौजन्य व उदारता प्रादि गणों के विषय में बहत
द्वारे चतुष्पथे वा परीषहोपसर्गादिनिष्कम्पकायोत्सर्गः सन्मान, उनकी प्रशंसा और सहायता प्रादि के द्वारा पूर्वोक्तप्रतिमानुष्ठानं पालयन् सकलां रात्रिमास्त अनुकूल प्रवृत्ति करने को पक्षपात कहते हैं। इति पञ्चमी। (योगशा. स्वो. विव. ३-१४८, पक्षाभास-१. तत्रानिष्टादिः पक्षाभासः। (परीक्षा. प. १७१-७२)। ६-१२) । २. तत्र प्रतीत-निराकृतान भीप्सितसा- पांच मास पर्यन्त चारों पर्वो (प्रष्टमी व चतुर्दशी) ध्यधर्मविशेषणास्त्रयः पक्षाभासाः। (प्र. न. त. में घर पर, उसके द्वार पर अथवा चौराहे पर परी६-३८)।
षह और उपसर्गमादि में अडिग रहते हुए कायोत्सर्ग१ अनिष्ट, बाधित और सिद्ध साध्यधर्म से युक्त पूर्वक पूर्व चार प्रतिमाओं के अनुष्ठान का परिधर्मी (पक्ष) को पक्षाभास कहा जाता है। पालन करना व समस्त रात्रि को बिताना, यह पक्षी-पक्षवन्तस्तिर्यञ्चः पक्षिणः। (धव. पु. १३. पांचवीं प्रतिमा है। पृ. ३६१)।
पञ्चाग्निसाधक-कामः क्रोधो मदो माया लोभपंखों वाले तियंच जीव पक्षी कहलाते हैं। श्चेत्यग्निपञ्चकम् । येनेदं साधितं स स्यात्कृती पडू-पतन्त्यस्मिन्निति पङ्कः, पङ्को नाम स्वेदा- पञ्चाग्निसाधकः ।। (उपासका. ८७१)। बद्धो मलः । (उत्तरा. चू. पृ.७६)।
काम, क्रोध, मान, माया और लोभ, इन पांच पसीने से सम्बद्ध मल को पडू कहते हैं।
अग्नियों को-अग्नि के समान सन्तापजनक दुर्गणों पगति-से जहाणाम ते केइ पुरिसे पंकसि वा
को-जिसने शान्त कर दिया है, ऐसे साधको उदयंसि वा कायं उबिहिया गच्छति, से तंक. पञ्चाग्निसाधक कहते हैं। गती। (प्रज्ञाप. २०५, पृ. ३२८)।
पञ्चाङ्ग नमस्कार-'पञ्चाङ्ग' पञ्चाङ्गानि कीचड़ या पानी में शरीर को ऊंचा करके गमन जानुद्वय-करद्वय शिरोलक्षणानि भूस्पृष्टानि यत्र स करने को पङ्कगति कहते हैं।
पञ्चाङ्गः। (चैत्यव. भा. दे. ६, पृ. ५)। पञ्चम अणुव्रत-देखो परिग्रहपरिमाणाणुव्रत। दो हाथ, दो घुटने और शिर को भूमि से लगाकर पञ्चमगुरणस्थानवर्ती श्रावक-यश्चाप्रत्याख्या- नमस्कार करने को पञ्चाङ्ग नमस्कार कहते हैं । नावरणसंज्ञिद्वितीयकषायक्षयोपशमे जाते सति पृथि- पञ्चन्द्रिय-१. सुर-णर णारय-तिरिया वण्ण-रसव्यादिपञ्चस्थावरवघे प्रवृत्तोऽपि यथाशक्त्या त्रसव फास-गंध-सद्दण्हू । जलचर-थलचर-खचरा बलिया निवृत्तः स पञ्चमगुणस्थानवर्ती श्रावको भण्यते । पंचेदिया जीवा ।। (पंचा. का. ११७)। २. पञ्चा(व. द्रव्यसं. टी. ४५, पृ. १७१)।
नां स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षुःश्रोत्रज्ञानानामावरणअप्रत्याख्यानावरण नामक द्वितीय कषाय का क्षयोप- क्षयोपशमात् पञ्चविधज्ञान भाजः पञ्चेन्द्रियाः । शम होने पर स्थावर जीवों के घात में प्रवृत्त होते (शतक. मल. हेम. वृ. ३८ कर्मस्त. गो. वृ. १०, हुए भी जो शक्ति के अनुसार सजीवघात से पृ. १७) । ३. पञ्च स्पर्शन-रसन-प्राण-चक्षुःश्रोत्र
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