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कालुष्य] ३५५, जैन-लक्षणावली
[काष्ठा मुपदेशः कथनमित्यर्थः, दीर्घकालिक्याः सम्वन्धी कालोवक्कमे । (अनुयो. सू. ६८) । २. कालस्योपदीर्घकालिक्या वा मतेनोपदेशो दीर्घकालिक्युपदेशः। क्रमः कालोपक्रम; xxx यदिह नालिकादिभि(नन्दी. हरि. व. पृ. ७८) ।
रादिशब्दात् शंकुच्छाया-नक्षत्रचारादिपरिग्रहस्तैः संजीका श्रुत तीन प्रकार का है-कालिकी संज्ञा के काल उपक्रम्यते, स कालोपक्रम इति । (प्रनयो. उपवेश से, हेतु के उपदेश से, और दृष्टिवाद के सू. मल.हे.व.६८)। उपदेश से । कालिको से यहां प्रादिपद (दीर्घ) का नालिका (काल के माप का यंत्रविशेष) शंकुछाया लोप हो जाने के कारण दीर्घकालिकी संज्ञा ग्रहण (खूटी की छाया) और ग्रहसंचार प्रादि के प्राश्रय की गई है। दीर्घकालिकी संज्ञा सम्बन्धी या उसके से जो काल का बोष होता है, उसका नाम कालोपमत से जो उपदेश (कथन) किया जाता है, वह क्रम है। कालिक्युपदेश कहलाता है।
कालोपयोगवर्गणा - १. कालोवजोगवग्गणामो कालष्य-१. कोधो व जदा माणो माया लोभो व णाम कसायोवजोगदाणाणि । (कसायपा. प. चित्तमासेज्ज । जीवस्स कुणदि खोहं कलुसो त्ति य ५७९)। २. उवजोगो णाम कोहादिकसाएहि सह तं बुधा वेति ॥ (पंचा. का. १३८)। २. क्रोध. जीवस्स संपजोगो तस्स वग्गणाप्रो वियप्पा भेदा त्ति मान-माया-लोभानां तीवोदये चित्तस्य क्षोभः कालु- एयट्टो। Xxx तत्थ कालदो जहणोरजोर. व्यम्। (पंचा. का. अमृत. व. १३८)। ३. क्रोध. कालप्पडि जावुक्कस्सोवजोगकालो ति णिरंतर. मान-माया-लोभाभिधानश्चभिः कषायः क्षुभितं मवट्टिदाणं 'वियप्पाणं कालोवजोगवग्गणा तिमण्णा चित्तं कालण्यम । (नि. सा.व.६६)। ४. तत्क्रो- कालविसयादो उवजोगवग्गणामो कालोवजोगवा. धादिजनितं चित्तवैकल्यं कालुष्यम् । (पंचा. का. जय. णामो त्ति गहणादो। (जयप.-क. पा. पृ. ५७६
टि. १)। १क्रोध, मान, माया और लोभ कषायों से उत्पन्न कषाय के जघन्य उपयोगकालके स्थान से लेकर क्षोभ को कालुष्य कहते हैं।
उत्कृष्ट उपयोगकाल के स्थान तक निरन्तर अब कालोज्झित-कासाइमाइ जं पूव्वकालजोग्गं तद- स्थित भदों को कालोपयोगवर्गणा कहते हैं। यहां न्नहिं उज्झे। होहिइ च एस्सकाले अजोग्गयमणा- काल से सम्बन्ध रखने के कारण उपयोगवर्गणामों गयं उज्झे ।। (बृहत्क. भा. ६१३) ।
को कालोपयोगवर्गणा कहा गया है। काषायी-कषाय रंग से रंगे (शीतल)-प्रादि काष्ठकर्म-काष्ठे क्रियन्ते इति निष्पत्तेः देव-णेरवस्त्रों के पूर्व काल के-ग्रीष्म आदि ऋतु के- इय-तिरिक्ख-मणुस्साणं णच्चण-हसण-गायण-तरयोग्य होने से जो उनका अन्य समय में-वर्षा वीणादिवायणकिरियावावदाणं कट्रघडिदपडिमामो प्रादि के काल में-परित्याग किया जाता है, इसे कट्टकम्मेत्ति भणति । (धव. पु. ६, पृ. २४९); कालोमित कहते हैं। अथवा भविष्य में-वर्षा कठेसु जाम्रो पडिमानो घडिदामो दूवय-च उप्पयप्रादि काल में-अनुपयोगी होने से जो उक्त वस्त्र अपाद-पादसंकुलाणं तारो कट्ठकम्माणि णाम । का वर्षा के पूर्व में ही परित्याग कर दिया जाता (धव. पु. १३, पृ. २०२)। है, यह कालोज्झित कहलाता है।
नाचना, हंसना, गाना तथा तुरई एवं वीणा मादि कालोत्तर-कालोत्तरः समयादावलिका प्रावलि- बाजों को बजाना; इत्यादि क्रियानों में प्रवत्त देव, कातो मुहूर्तमित्यादि । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १, नारकी, तिथंच और मनुष्यों की काष्ठनिमित प्रति
मानों को काष्ठकर्म कहा जाता है। 'काष्ठे क्रियन्ते' समय से प्रावली बड़ी है और प्रावली से मुहूर्त अर्थात् काष्ठ में जो किये जाते हैं, इस निरुक्ति के बड़ा है, इस प्रकार से उत्तरोत्तर बढ़ते हुए काल- अनुसार उक्त प्रतिमानों की 'काष्ठकर्म' यह सार्थक भेदों को कोलोत्तर कहते हैं।
संज्ञा है। कालोपक्रम-१. से कि तं कालोवक्कमे ? २ नं काष्ठा-१. पञ्चदशाक्षिनिमेषा काष्ठा। (प. णं नालिपाईहिं कालस्सोवक्कमणं कीरइ, से तं पु. ६, पृ. ६३) । २. पञ्चदशनिमिषः काष्ठा।
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