________________
परम्परोपनिधा ]
नहीं ग्रहण करता । इस प्रकार से स्थापित करने पर परम्परास्थापना कहलाती है। इसी प्रकार ईख के रस से उतरोत्तर कक्कब, पिण्ड और गुड़ आदि को स्थापित किया जा सकता है। परम्परोपनिधा - १. जत्थ दुगुण-चदुगुणादिपरिक्ता कीरदि सा परंपरोवणिधा । ( धव. पु. ११, पृ. ३६२ ) ; जहण्णद्वाणं पेक्खिद्ण प्रणतभागन्भहिया दिसरूवेण द्विदट्ठाणाणं जा थोव-बहुत्तपरूवणा सा परंपरोवणिधा । ( धव. पु. १२, पृ. २१४) । २. तत्र परम्परया उपनिधा मार्गणं परम्परोपनिधा । ( पंचसं मलय. वृ. १ - ९ ) । १. जिस अधिकार में दुगुने व चौगुने आदि की परीक्षा की जाती है उसका नाम परम्परोपनिधा है । २. उपनिधा का अर्थ मार्गणा या अन्वेषण होता है, तदनुसार परम्परा से स्थानादिकों का जहां अन्वेषण किया जाता है, ऐसे प्रकरण को परम्परोपनिधा कहा जाता है । परलोक - १. परलोको भवान्तरलक्षण: ( श्राव. नि. हरि. वृ. ५६६, पृ. २४१) । २. पर उत्कृष्टो वीतरागचिदानन्दै कस्वभाव आत्मा, तस्य लोकोऽवलोकनं निर्विकल्पसमाधौ वानुभवनमिति परलोकशब्दस्यार्थः, अथवा लोक्यन्ते जीवादिपदार्थां यस्मिन् परमात्मस्वरूपे यस्य केवलज्ञानेन वा स भवति लोकः, परश्चासौ लोकश्च परलोकः, व्यवहारेण पुनः स्वर्गापवर्गलक्षणः परलोको भण्यते । (परमा. वृ. १-११० ) ३. परलोको भवान्तरगतिरन्यजन्म । (श्र. मी. वसु.वृ. ८) ।
१ श्रन्य भव में जीव के जाने को परलोक कहते हैं । २ वीतराग चिदानन्दरूप अनुपम स्वभाव वाले श्रात्मा का नाम पर है, उसका जो निर्विकल्प समाधि में अवलोकन या अनुभवन है उसे परलोक कहा जाता है । अथवा जिस परमात्मस्वरूप में या जिसके केवलज्ञान के द्वारा जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं उसे परलोक जानना चाहिए । व्यवहारनय से स्वर्ग - श्रपवर्ग आदि को परलोक कहा जाता है । परलोकभय - १. परलोकभयं परभवात् ( यत् प्राप्यते ) | ( श्राव. भा. हरि. वृ. १८४, पृ. ४८३ ) । २. लोकः शाश्वत एक एव सकलव्यक्तो विविक्तात्मनः, चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येक क। लोकोऽयं न तवापरस्तव परस्तस्यास्ति तदभी:
Jain Education International
[परलोकसंवेजनीकथा
कुतो, निःशंकं सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥ ( सयय. क. १४९ ) । ३. विजातीयातिर्यग्वादेः सकाशान्मनुष्यादीनां यद् भयं तत्परलोकभयम् । ( ललितवि. मु. प., पृ. ३८ ) । ४. यत् परभवादेवाप्यते, यथा मनुष्यस्य तिरश्चः, तिरश्चो मनुष्यात् तत्परलोकभयम् । ( श्रव. भा. मलय. वृ. १८५, पृ. ५७३) । ५. परलोकभयम् — एवंविधदुर्धरानुष्ठानाद्विशिष्टं फलं परलोके भविष्यति न वा । ( रत्नक. टी. ५-८ ) । ६. नर- तिर्यग्भ्यां देवस्य देव - तिर्यभ्यां नरस्य, देव-नराभ्यां तिरश्चः, देवान्नारकस्य च यद् भयं तत्परलोकभयम् । (गु. गु. षट्. स्वो वृ. श्लो. ६, पृ. २५) । ७. मनुष्यस्य देवा - देर्भयं परलोकभयम् । ( कल्पसू. वि. वृ. १५, पृ. ३०) । ८. परलोकः परत्रात्मा भाविजन्मान्तरांशभाक् । ततः कम्प इव त्रासो भीतिः परलोकतो ऽस्ति सा ।। भद्रं चेज्जन्म स्वर्लोके माभून्मे जन्म दुर्गतौ । इत्याद्याकुलितं चेतः साध्वसं पारलौकिकम् ॥ ( पञ्चाध्यायी २, ५१६-१७; लाटीसं. ४-४० व ४१) ।
१ परभव के श्राश्रय से जो भय होता है उसका नाम परलोकभय है । २. लोक शाश्वत व एक ही है, जो सब को प्रगट है । शुद्ध चेतन आत्मा के केवलज्ञानस्वरूप लोक का स्वयं प्रकेला अवलोकन करता है । उस को छोड़कर दूसरा और कोई तेरा लोक है ही नहीं, तब भला उसका भय कहां से हो सकता है ? नहीं हो सकता । इस प्रकार यहां निश्चयनय का श्राश्रय लेने वाले के लिए परलोक भय का निषेध किया गया है । ३ विजातीय तियँच व देव आदि से मनुष्यों श्रादि को जो भय होता है वह परलोकभय कहलाता है । ५ इस प्रकारके दुर्धर अनुष्ठान का परलोक में कुछ विशेष फल होगा कि नहीं, इस प्रकार के भय को परलोकभय कहा जाता है ।
६६६, जैन- लक्षणावली
परलोकसंवेजनीकथा - परलोगसंवेदणी जहाइस्सा-विसाद-मद-कोह -माण - लोभादिएहिं दोसेहि । देवावि समभिभूया तेसु वि कत्तो सुहं प्रत्थि ॥ इट्ठजणविप्पोगो चेव चयं चेव देवलोगाउ । एतारिसाणि सग्गे देवा वि दुहाणि पावंति ।। जइ देवे एयारिसाई दुखाइं पाविज्जंति, णरग- तिरिएसु पुण का कहा ? ( द प १०८) ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org