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परमेष्ठिमुद्रा
महेश्वरत्व को प्राप्त है वह त्रिविध कर्म-मल से रहित परमेश्वर कहलाता है । परमेष्ठिमुद्रा- उत्तानहस्तद्वयेन वेणीबन्धं विधायाङ्गुष्ठाभ्यां कनिष्ठिके तर्जनीभ्यां च मध्यमे संगृह्यानामिके समीकुर्यादिति परमेष्ठिमुद्रा । यद्वा वामकरागुली रूर्ध्वकृत्य मध्यमां मध्यमे कुर्यादिति द्वितीया (परमेष्ठिमुद्रा) । ( निर्वाणक. पृ. ३३ ) । दोनों हाथों को ऊंचा उठाकर और उन्हें वेणी सदृश बांधकर दोनों अंगूठों से दोनों कनिष्ठिकानों को, तथा दोनों तर्जनियों से दोनों मध्यमा अंगुलियों को संगृहीत कर दोनों अनामिकानों के समीकरण को परमेष्ठिमुद्रा कहते हैं ।
६६८, जैन-लक्षणावली
परमेष्ठी - १. जो मिच्चु जरारहिदो मद - विब्भमसेद-खेद-परिहीणो । उप्पत्ति-रदिविहूणो सो परमेट्ठी वियाणाहि ।। ( जं. दी. प. १३ - ८६ ) । २. परमे इन्द्रादीनां वन्द्ये पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी । ( रत्नक. टी. १-७) । ३. परमेष्ठी परमे इन्द्रादिवन्धे पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी स्थानशीलः । ( समाधि. टी. ६ ) । ४. परमे इन्द्र-चन्द्र-नरेन्द्रपूजिते पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी । ( चारित्रप्रा. टी. १; भावप्रा. टी. १४ε)।
१ जो मृत्यु, जरा, मद, विभ्रम, स्वेद और खेद से रहित होता हुआ उत्पत्ति और रति से विहीन है उसे परमेष्ठी जानना चाहिए।
परम्पर सिद्धकेवलज्ञान - १ ततो द्वितीयादिसमयेष्वनन्तामप्यनागताद्धां परम्परसिद्धकेवलज्ञानमिति । ( नन्दी. हरि वृ., पृ. ५० ) । २. सिद्धत्वद्वितीयादिसमयेषु वर्तमानं परम्परसिद्धकेवलज्ञानम् । ( श्राव. नि. मलय. बृ. ७८, पृ. ८३ ) ।
१ सिद्ध होने के दूसरे समय से लगाकर श्रागे अन्त काल तक रहने वाले सिद्ध जीवों के केवलज्ञान को परम्परसिद्ध केवलज्ञान कहते हैं । परम्परादृष्टान्त---यः खल्वनन्तरमुक्तोऽपि परोक्षत्वादागमगम्यत्वाद्दान्तिकार्थ साधनायालं न भवति तत्प्रसिद्धये चाध्यक्षसिद्धो यौऽन्य उच्यते स परम्परादृष्टान्तः । (दशवं. नि. हरि. १४१ ) । श्रव्यवहित पूर्व में कहा गया भी जो दृष्टान्त परोक्ष या श्रागगम्य होने से अपने दान्तिक अर्थ की मिद्धि करने में समर्थ न हो तब उसकी सिद्धि के
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परम्परास्थापना
लिये जो प्रत्यक्षसिद्ध अन्य दृष्टान्त दिया जाता है उसे परम्परादृष्टान्त कहते हैं । परम्पराबन्ध - बंधबिदियसमयप्पहृदि कम्मपोग्गलक्खंधाणं जीवपदेसाणं च जो बंधो सो परंपरबंधो णाम । ( धव. पु. १२, पृ. ३७० ) ।
बन्ध के दूसरे समय से लेकर जो कर्मरूप पुद्गलस्कन्धों का और जीवप्रदेशों का बन्ध होता है उसे परम्पराबन्ध कहा जाता है । परम्परालब्धि - लब्धीनां परम्परा यस्मादागमात् प्राप्यते यस्मिन् तत्प्राप्त्युपायो निरूप्यते वा सा परम्परालब्धिः श्रागमः । ( धव. पु. १३, पृ. २८३ ) । जिस श्रागम से लब्धियों को परम्परा प्राप्त की जाती है, अथवा जिसमें उनकी प्राप्ति के उपाय की प्ररूपणा की जाती है उसे परम्परालब्धि कहते हैं । यह एक प्रागमविशेष है ।
परम्परास्थापना — उब्भट्ठपरिन्नायं अन्नं लद्धं पणे घेत्थी । रिणभीया व अगारी दहित्ति दाहं सुए ठवण || नवणीयमंथुतक्कं व जाव प्रत्तट्ठिया
गिति । सुणा जाव घयं कुसणंपिय जत्तियं कालं ॥ रसक्कब-पिंडगुला मच्छंडिय खंड-सक्कराणं च । होइ परंपरठवणा अन्नत्थ व जुज्जुए जत्थ ॥ ( पिण्डनि. २८१ - ८३ ) ।
साधु के द्वारा किसी गृहिणी से दूध की याचना करने पर उसने थोड़ी देर से देने के लिए कहा । पश्चात् साधु को दूध अन्य घर से प्राप्त हो गया । उधर दूध को प्राप्त करके गृहिणी ने दूध ग्रहण करने के लिए प्रार्थना की। इस पर साधु ये कहा कि दूध मुझे प्राप्त हो गया है । यदि फिर कभी श्रावश्यकता हुई तो ले लूंगा । इस प्रकार साधु के कहने पर गृहिणी ने ऋण से भयभीत के समान उसका उपयोग स्वयं नहीं किया और दूसरे दिन दही देने के विचार से उसका दही बना लिया । पर साधु ने उसे नहीं लिया। इसी प्रकार श्रागे दही से मंथु ( छांछ और मक्खन के बीच की अवस्था ), मंथु से छांछ और छांछ से मक्खन बनाया गया, फिर भी अपने निमित्त स्थापित करने के कारण साधु ने उन्हें नहीं लिया। इसी प्रकार घी की याचना करने पर वह कुछ कम एक पूर्वकोटि काल प्रमाण ( श्रायुस्थिति ) स्थापित किया जा सकता है । पर समाधान कर उसे
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