SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्पादकीय लक्षणावली प्रथम भाग के प्रकाशित होने के लगभग दो वर्ष बाद उसका यह द्वितीय भाग भी पाठकों के कर-कमलों में पहुंच रहा है । जैसा कि प्रथम भाग के सम्पादकीय में निर्देश किया जा चुका है, वे ही कठिनाइयां इस भाग के सम्पादन-कार्य में भी रही हैं व उनके दूर करने में समय की अपेक्षा भी रही है। इस भाग में मैं पूरे 'प' को समाविष्ट करना चाहता था, पर इसके प्रकाशन में अब अधिक विलम्ब करना उचित प्रतीत नहीं हया । इसके अतिरिक्त अन्तिम तीसरे भाग की जिल्द के प्रमाण की भी कल्पना करते हुए इस भाग में स्वरान्त 'प' का ही समावेश किया गया है । अगले भाग का प्रारम्भ संयुक्त 'प (प्र) से होगा। __ प्रथम भाग की प्रस्तावना में प्रस्तुत लक्षणावली में उपयुक्त ग्रन्थों में से १०२ ग्रन्थों का परिचय कराकर शेष ग्रन्थों का इस भाग में परिचय कराने की सूचना की गई थी। परन्तु सम्पादन क्षेत्र में विशेष ख्यातिप्राप्त श्रीमान् डा. प्रा. ने. उपाध्ये एम. ए., डी. लिट. की राय थी कि ग्रन्थपरिचय में समय व शक्ति को न लगा कर यदि आगे का कार्य शीघ्र सम्पन्न कराया जा सके तो ठीक होगा। इसे ठीक समझ कर इस भाग में शेष ग्रन्थों का परिचय नहीं कराया गया है। इस भाग के अन्तर्गत लक्षणों में से कितने ही लक्षणों की विविधता पर प्रस्तावना में कुछ प्रकाश डालना चाहता था, पर विलम्ब को देखते हुए फिलहाल उसे भी स्थगित कर दिया है। इस भाग के सम्पादन में भी श्री पन्नालाल जी अग्रवाल, पं. परमानन्द जी शास्त्री और पं. पार्श्वदास जी न्यायतीर्थ का सहयोग पूर्ववत् उपलब्ध होता रहा है। सुप्रसिद्ध लेखक विद्वान् श्री अगरचन्द जी नाहटा बीकानेर ने प्रस्तुत लक्षणावली के सम्पादन-कार्य में उपयोग करने के लिए हमें अपने व्यक्तिगत संग्रह में से स्थानांग सूत्र, सूर्यप्रज्ञप्ति और कुछ अंश व्यव"हारसुत्र भाष्य (पीठिकानन्तर द्वि. उद्देशक च. विभाग पृ. १-८७, गा. १-३८२ और तृ. उद्देशक च. विभाग पृ. १-३७, गा. १-१७६) देने की कृपा की है, इसके लिए हम उनके विशेष आभारी हैं। वीर सेवा मन्दिर के अध्यक्ष श्रीमान साह शान्तिप्रसाद जी जैन तथा महासचिव श्री महेन्द्रसेन जी जैनी की जो स्नेहपूर्ण प्रेरणा प्राप्त होती रही है उसको देख स्वास्थ्य आदि की कुछ प्रतिकलता के रहते हए भी मैं प्रस्तुत कार्य में उद्यत रहा हूं। इस कृपा के लिए मैं आप दोनों महानुभावों को नहीं भल सकता। दीपावली । २५-१०-७३ । बालचन्द्र शास्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy