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कालपुरुष]
३५०, जैन-लक्षणावली
किालमास
की जाती है)। पश्चात् अवपिणी के तृतीय समय में वह मरा, इसी क्रम से उक्त अवसपिणी के चतुर्थ १ जिस पावश्यक के करने का जो काल नियत है आदि अन्य सभी समयों में वह क्रम से मरण को उस काल में उसे न करके अन्य समय में करना तथा प्राप्त होता है। तत्पश्चात् अवसपिणी के समान वर्षाकाल प्रादि का अतिक्रमण करना-उसे न उत्सर्पिणी के भी समस्त समयों में जब वह यथा- करना, इत्यादि को कालप्रतिसेवना कहा जाता है। क्रम से मरण को प्राप्त होता है तब इतने काल कालप्रत्याख्यान-कालस्य दु:परिहार्यत्वात् कालको एक सूक्ष्म कालपुद्गलपरावर्तन कहा जाता है। साध्यायां क्रियायां परिहतायां काल एव प्रत्याख्यातो कालपुरुष-यो यावन्तं कालं पुरुषवेदवेद्यानि भवतीति ग्राह्यम् । तेन संध्याकालादिषु अध्ययनकर्माणि वेदयते स कालपुरुषः । (सूत्रकृ. शी. व. गमनादिकं न संपादयिष्यामीति चेतः कालप्रत्या
ख्यानम् । (भ. प्रा. विजयो. ११६, पृ. २७६) । जो पुरुष जितने काल तक पुरुष वेद के द्वारा वेदन काल चूंकि अपरित्याज्य है, अतः विवक्षित काल में किये जाने वाले कर्मों का अनुभव करता है, उतने सिद्ध होने वाली क्रिया का परित्याग करने पर समय तक उसे कालपुरुष कहते हैं।
काल का ही प्रत्याख्यान समझना चाहिए। इससे कालपूजा-गर्भादिपञ्चकल्याणमहतां यद्दिनेऽभवत्। यह अभिप्राय समझना चाहिए कि संध्याकाल आदि तथा नन्दीश्वरे रत्नत्रयपर्वणि चार्चनम् ॥ स्नपनं में मैं अध्ययन व गमन आदि न करूँगा इस प्रकार क्रियते नानारसैरिक्षघृतादिभिः। तत्र गीतादिमांगल्यं के विचार का नाम ही कालप्रत्याख्यान है। कालपूजा भवेदियम् ।। (धर्मसं. श्रा. ६,६६-६७)। कालमंगल--१. जस्सि काले केवलणाणादिमंगलं तीर्थंकरों के गर्भादि कल्याणकों के दिनों में, नन्दीश्वर परिणमदि । परिणिक्कमणं केवलणाणुब्भवणिबुदि(अष्टाह्निक पर्व) में और रत्नत्रय पर्व के समय जो पवेसादी। पावमलगालणादो पण्णत्तं कालमंगलं पूजा की जाती है। इक्षु और घृतादि रसों के द्वारा एवं ॥ (ति. प. १, २४-२५)। २. तत्थ कालअभिषेक किया जाता है, तथा गीत प्रादि मंगलकार्य मंगलं नाम-जम्हि काले केवलणाणादिपज्जएहि किये जाते हैं। इस सबको कालपूजा कहा जाता है। परिणदो कालो पावमलगालणतादो मंगलं । तस्योदाकालप्रतिक्रमण-१. रात्रि-संध्यात्रयस्वाध्याया- हरणं परिनिष्क्रमण-केवलज्ञानोत्पत्ति-परिनिर्वाणदिववश्यककालेष गमनागमनादिव्यापाराकरणात् काल- सादयः । जिनमहिमसम्बद्धकालोऽपि मंगलम, प्रतिक्रमणम् । कालस्य दुष्परिहार्यत्वाकालाधि- यथा नन्दीश्वरदिवसादिः । (धव. पु. १, पृ. २६)। करणव्यापारविशेषाः कालसाहचर्यात् कालशब्देन १ जिस काल में तीर्थंकरादि महापुरुषों ने परिगृहीताः । (भ. प्रा. विजयो. ११६); संध्यास्वा- निष्क्रमण (दीक्षा), केवलज्ञान और निर्वाण प्रादि ध्यायकालादिषु गमनागमनादिपरिहारः कालप्रति- प्राप्त किया है, उस काल को पापमल का विनाशक क्रमणम् । (भ. प्रा. विजयो. ४२१)। २. कालमा- होने से कालमंगल कहते हैं । श्रितातीचारान्निवृत्ति: कालप्रतिक्रमणम् । (मूला. कालमास-यत्र काले यो मासो वर्ण्यते स कालप्र. वृ.७-११५)।
धानताविवक्षणात्तत्कालमास: । xxx यदि वा १ रात्रि में, तीनों संध्यानों में तथा स्वाध्याय और स्वलक्षणनिष्पन्नो नाक्षत्रादिकः पंचविधः (नाक्षत्रः, प्रावश्यकों के काल में गमनागमनादि व्यापार न __चान्द्रः, ऋतुमासः, आदित्यः, अभिवधित:) पंचभेदः करना, यह कालप्रतिक्रमण कहलाता है। काल के कालमासः । (व्यव. भा. मलय. वृ. २-१४) । अपरिहार्य होने से तदाश्रित व्यापारविशेष कालशब्द जिस काल में जिस मास का वर्णन किया जाता है से ग्रहण किये गये हैं।
उसे काल की प्रधानता की विवक्षा से कालमास कालप्रतिसेवना -१. आवश्यककालादन्यस्मिन् कहा जाता है। अथवा अपने-अपने लक्षणों से सिद्ध काले अावश्यककरणम्, वर्षाव ग्रहातिक्रमः, इत्यादिका वह कालमास नक्षत्रादि के योग से पांच प्रकार का कालप्रतिसेवना। (भ, प्रा. विजयो. ४५०)। २. है--नाक्षत्र, चान्द्र, ऋतुमास, प्रादित्य और अभिकाल आवश्यककालवर्षावग्रहाद्यतिक्रमः सेवा। (भ. वधित ।
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