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________________ दशपूर्वी] ५१६, जैन-लक्षणावली [दंशमशकपरीषहजय बुद्धि से अग्नि को प्रज्वलित करना, इसका नाम पिंडविशुद्धि च जं परूवेदि । दसवेयालियसुत्तं दह दवदान है। काला जत्थ संवुत्ता ॥ (अंगप. ३-२४, पृ. ३०८)। दशपूर्वी-१. रोहिणिपहृदीण महाविज्जाणं देव- १ मनक नामक पुत्र के हित के लिए शय्यमभव दामो पंच सया। अंगुट्ठपसे णाई खुल्लयविज्जाण सूरि के द्वारा प्रकाल में रचे गये दश अध्ययन सत्त सया ।। एत्तण पेसणाई मग्गते दसमपुत्वपढ- स्वरूप श्रुत को दशवकालिक कहा जाता है। णम्मि । णेच्छंति संजमत्ता तामो जे ते अभिण्णदस- २ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का प्राश्रय लेकर पुवी ॥ भुवणेसु सुप्पसिद्धा विज्जाहरसमणणाम- मुनियों के प्राचार और गोचर (भिक्षाटन) की विधि पज्याया। ताणं मुणीण बुद्धी दसपुवी णाम बोद्ध- अथवा प्राचारविषयक विधि के वर्णन करने वाले व्वा ॥ (ति.प.४, ६६८-१०००)। २. महा- श्रुत को दशवकालिक कहते हैं। रोहिण्यादिभिस्त्रिभिरागताभिः प्रत्येकमात्मीयरूपसा- दहन-१. दहनं प्रतीतमूल्मुकादिभिः। (ध्यानश. माविष्करणकथनकुशलाभिरविचलितचारित्रस्य हरि. वृ. १६) । २. बालादित्यसमज्योतीरत्युष्णदशपूर्वदुस्तरसमुद्रोत्तरणं दशपूर्वित्वम् । (त. वा. ३, श्चतुरंगुलः । पावर्तवान् वहन्नूवं पवनो दहनः स्मृतः ॥ (योगशा. ५-५१)। १ दश विद्यानुवाद पूर्व के पढ़ते हुए रोहिणी प्रादि १ उल्मक (मलात) प्रादि के द्वारा वहन प्रसिद्ध पांच सौ महाविद्यानों के तथा अंगुष्ठप्रसेनादि सात है। २ उदित होते हुए सूर्य के समान कान्ति वाली, सौ छोटी विद्यानों के द्वारा सिद्ध होकर अभीष्ट अत्यन्त उष्ण और चार अंगुल ऊंची ऐसी ऊपर कार्यसिद्धि के लिए प्रार्थना करने पर भी जो संचार करने वाली प्रावर्त (गोलाकार भ्रमण) उनकी इच्छा न करते हुए चारित्र से विचलित नहीं युक्त वायु को दहन कहा जाता है। होते हैं उन विद्याधर श्रमणों को दशपूर्वी कहते हैं। दंशमशकपरीषहजय-१. दंशमशक-मक्षिकादशमी प्रतिमा- दशमासानात्मार्थनिष्पन्नमाहारं पिशु क-पुत्तिका-मत्कुण-कीट-पिपीलिकावश्चिकादिन भक्त इति दशमी। (योगशा. स्वो. विव. कृतां वाधामप्रतिकारां सहमानस्य टेषां बाघां त्रिधा ऽप्यकुर्वाणस्य निर्वाणप्राप्तिमात्रसंकल्पप्रावरअपने निमित्त बने हुए प्राहार के खाने का दस मास णस्य तद्वेदनासहनं दंशमशकपरिषहक्षमा। (स. सि. तक त्याग करने को दशमी प्रतिमा कहते हैं। ६-९)। २. दंशमशकादिबाधासहनमप्रतीकारम् । ६-९)। २. दंशमशकादिबाघासह कावकालिक-१. दश विकाले पुत्रहिताय प्रत्याख्यातशरीराच्छादनस्य क्वचिदपि प्रप्रतिवद्धचेस्थापितान्यध्ययनानि दशवकालिकम् । (त. भा. तसः परकृतायतन-गुहा-गह्वरादिष रात्री दिवा वादंशहरि.प.१-२०)। २. दशवेयालियं पायार-गोयर. मशक-मक्षिका-पिशुक-पुत्तिका-यूक-मत्कूण-कीट-पिपी. विहिं वण्णे इ । (घव. पु. १, पृ. ६७); दसवेयालियं लिका-वृश्चिकादिभि: तीक्ष्णपातैर्भक्ष्यमाणस्यातितीव्रदब्व-खेत्त-काल-भावे अस्सिदूण आयारगोयरविहि बेदनोत्पादकैः अव्यथितमनसः स्वकर्मविपाकमनवण्णेदि । (धव. पु. ६, पृ. १९०)। ३. साहूण- चिन्तयतो विद्या-मंत्रोषादिभिः तन्निवृत्ति प्रति निरुमायार-गोयरविहि दसवेयालियं वण्णेदि। (जयध. त्सुकस्य मा शरीरपतनादपि निश्चितात्मनः परबलप.१.प्र. १२०)। ४. दुम-पुष्पितादिदशाधिकार- प्रमर्दनं प्रति प्रवर्तमानस्य मदान्धगन्धसिन्धरस्य मनिजनाचरणसचकं दशवकालिकम् । (श्रुतभ. टी. रिपुजनप्रेरितविविधशस्त्रप्रतिघातादपराङनखस्य नि:२४.प. १७६) । ५. विशिष्टाः काला विकाला- प्रत्यूहविजयोपलम्भनमिव कर्मागतप्रतानापराभवं . लेख भवानि वैकालिकानि वर्ण्यन्तेऽस्मिन्निति प्रति प्रयतनं दंशमशकादिबाघासहनमप्रतीकारमिदशवकालिकम, तत्साधूनामाचार-गोचरविधि पिण्ड- त्याख्यापते । (त. वा. ६,६, ८)। ३. नदष्टो च वर्ण यति । (गो. जी. म. प्र. व जी. देशमशस्त्रासं द्वेष मुनिवजेत् । न वारयेदपेक्षेत प्र. टी. ३६७-६८)। ६. वृक्षकुसुमादीनां दशानां सर्वाहारप्रियत्ववित् ॥ (प्राव. नि. हरि.व. १८. भेदकथकं यतीनामाचारकथकं च दशवैकालिकम् । पृ.४०३ उद.)। ४. दंशमशकादिभिः दश्यमानोऽपि न (त. वत्ति. श्रुत. १-२०)। ७. जदिगोचरस्स विहि ततः स्थानादपगच्छेत, न च तवपनयनाथं घमादिना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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