________________
४६६, जन-लक्षणावली [ज्ञशरोर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यश्रुत ज्ञ-जानाति ज्ञास्यत्यज्ञासीदनेन ज्ञ इति स्मृतम् । धिकार के अथवा अनेक अधिकारों के जानने (माचा. सा. ४-२) ।
वाले के शरीर को -जो अचेतन अवस्था को प्राप्त जो वर्तमान में जानता है, भूत में जानता था, और होकर उच्छ्वासादि प्राणों से रहित (च्यत) हमा भविष्य में जानेगा वह ज्ञ (आत्मा) कहलाता है। है या उनसे रहित कराया गया है (च्यावित) इस ज्ञशरीर द्रव्यश्रत-देखों ज्ञगरीरद्रव्यावश्यक । १. प्रकार से जो पाहारादिपरिणतिजनित उपचय से से कि तं जाणयसरीरदब्वसु ? २-पुत्ति पयत्था. रहित हुआ है (त्यक्त), वह चाहे सर्वाग प्रमाण हिगारजाणयस्स जं सरीरय ववगय चुन-चाविन- शय्या पर स्थित हो, चाहे अढ़ाई हाथ प्रमाण संस्तार चत्तदेह तं चेव पुव्वणिग्रं भाणिअव्वं जाव से तं पर स्थित हो, चाहे सिद्धशिलागत हो (जहां जाकर जाणयशरीरदव्वसुग्रं। (अनुयो. सू. ३५) । ३. प्राराधक ने भक्तपरिज्ञादि अनशन को स्वीकार ज्ञातवानिति ज्ञस्तस्य शरीर तदेवानुभूतभावत्वात किया है, करता है, या भविष्य में स्वीकार करेगा द्रव्यश्रतं ज्ञशरीरद्रव्यश्रुतम्, श्रुतमिति यत्पदं तदर्था- वह सिशिला कही जाती है), नषेधिकीगत होधिकारज्ञायकस्य यच्छरीरक व्यपगतादिविशेषणवि. शवस्थापन की भूमि में स्थित हो, जिसे देखकर शिष्टं तज्ज्ञशरीरद्रव्यश्रुतमित्यर्थः। (अनुयो. मल. कोई यह कह सके कि इस शरीर ने जिनदृष्ट भाव हेम. वृ. ३५, पृ. ३३)।
से प्रावश्यक पद को ग्रहण किया है, ज्ञापित कराया श्रुत के अधिकारों के ज्ञाता पुरुष के प्रचेतन च्यत, है व प्ररूपित किया है -- ऐसे ज्ञाता के शरीर को च्यावित या त्यक्त शरीर को (देखो सूत्र १६, पृ. ज्ञशरीरद्रव्यावश्यक कहते हैं। १६-२०) ज्ञशरीरद्रव्यश्रुत कहते हैं।
ज्ञशरीरद्रव्योपक्रम-तत्र यदुपक्रमशब्दार्थज्ञस्य ज्ञशरीरद्रव्य -से कि तं जाणयसरीरदव्वा
शरीरं जीवविप्रमुक्तं सिद्धिशिलातलादिगतं तद भूत. णुपुन्वी ?, प्राणुपुत्वीपयत्थाहिगारजाण यस्स जं
भावत्वात् ज्ञशरीरद्रव्योपक्रमः। (जम्बूद्वी. शा. व. सरीरयं ववगयचुय-चाविय चत्तदेह, सेस जहा दवा
पृ.५; व्यव. भा. मलय. वृ. पृ. १)। बस्सए तहा आणिग्रव्वं जाव से तं जाणयसरीरदब्वा.
उपक्रम शब्द के अर्थ के ज्ञायक पुरुष के सिद्ध शिलाणुपुवी। (अनुयो. सू. ७२, पृ. ५१-५२)।
तल प्रादि को प्राप्त च्यत, च्यावित या त्यक्त मानपूर्वी पद के अधिकारों के जानने वाले पुरुष
शरीर को ज्ञशरीरद्रव्योपक्रम कहते हैं। के अचेतन च्युत, च्यावित या त्यक्त देह को ज्ञशरीरद्रव्यानपूर्वो कहते हैं।
जशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यश्रत-से कि ज्ञशरीरद्रव्यावश्यक-१. से किं तं जाणयशरीर
तं जाणयसरीर-भविग्रसरीरव इरित्तं दध्वसुग्रं ?, २दवावस्सय? २-यावस्सएत्ति पयत्था हिगारजाणय
पत्तय-पोत्थयलिहिलं, अहवा जाणयसरीर-भविप्रससस ज सरीरयं ववगयचुत-चावित-चत्त देहं जीवविप्प
रीरव इरित्त दब्बसुमं पंचविहं पण्णत्तं । तं जहाजहँ सिज्जागयं वा संथारगयं दा निसाहियागयं वा अंडयं बोडयं कीडय बालयं वागयं। अंडयं हंसगम्भासिद्धसिलातलगयं वा पासित्ता गं कोई भणेज्जा- दि, बोडयं कप्पासमाइ, कीडयं पंचविहं पण्णत्तं । तं ग्रहोणं इमेणं सरीरसमुस्सएण जिणदिठेणं भावेणं जहा-पट्टे मलए अंसुए चीणंसुए किमिरागे ।
H ai Gori Rat बालयं पंचविहं पण्णत्तं। तं जहा-उण्णिए उदिए दंमिश्र निदंसिय उवदंसिय। जहा को दिळंतो?,
मिअलोमिए कोतवे किट्टिसे । वागयं सणमाइ, से तं अयं महकमे पासी, अयं धयक पासी, से तं जाण- जाणयसरीर-भविप्रसरीरवइरित्तं दध्वसुनं।xxx यसरीरदव्वावस्सयं । (अनुयो. सू. १६)। २. ज्ञात- (अनुयो. सू. ३७)। वानिति ज्ञः, तस्य शरीरं उत्पादकालादारभ्य प्रति- ताडपत्र, भोजपत्र, कागज की पोथी अथवा वस्त्र क्षणं शोर्यत इति शरीरम् । तदेवानुभूतभावत्वात् । प्रादि पर लिखे हुए श्रुत को ज्ञशरीर-भव्यशरीरद्रव्यावश्यक ज्ञशरीरद्रव्यावश्यकम् । (अनुयो. हरि. व्यतिरिक्त द्रव्यश्रुत कहते हैं । सुत्त (सत्र) का अर्थ वृ. पृ. १४)।
डोरा भी होता है, उसे लक्ष्य में रखकर विकल्प प्रावश्यक पद के वाच्यभूत शास्त्र के अर्थरूप अर्था- रूप में यह भी यहां कहा गया है-अथवा उक्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org