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जीविताशंसाप्रयोग]
४६८, जैन-लक्षणावलो
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[जैन शासन
जीविते मोहाद् यथेच्छेदपि जीवितम् । यदि जीव्ये तज्जुगुप्सामोहनीयम्, जुगुप्साजनक मोहनायं जुगुप्सावरं तावदोषोऽयं यत्समस्यते। (लाटीसं. ६-२३८)। मोहनीयम्। (प्रज्ञाप. मलय. व. २३-२६३, पृ. १ शरीर अवश्य हेय है फिर भी उसके स्थिर रखने ४६६)। १०. यदुदयादात्मदोषसंवरणम्, अन्यमें प्रादर रखना, यह सल्लेखना का जीवितार्शसा दोषसाधारण सा जुगुप्सा । (भ. प्रा. मला. नाम का एक अतिचार है।
२०६७) । ११. यदुदयात्परदोषानाविष्करोति जीविताशंसाप्रयोग--जीवितं प्राणघारणम्, तत्रा- प्रात्मदोषान् संवृणोति सा जुगुप्सा। (त. वृत्ति भुत. भिलाषप्रयोगः--यदि बहुकालं जीवेयम् इति । इयं ५-६)। च वस्त्र-माल्य-पुस्न वाचनादिपूजादर्शनाद बहुपरि- १ जिस कर्म के उदय से अपने दोषों का संवरण वारदर्शनाच्च लोकश्लाघाश्रवणाच्चंव मन्यते- प्रौर पर के दोषों का प्रकाशन किया जाता है उसे जीवितमेव श्रेयः, प्रत्याख्याताशनस्यापि यत एवं. जुगुप्सा नोकषाय कहते हैं। विघा मदुद्दे शेनेयं विभूतिवर्तते । (श्रा. प्र. टी. जेन कुल-जिनो देवता येषां ते जैनास्तेषां कुलं ३८५; त. भा. हरि. ५.७-३२)।
पूर्वपुरुषपरम्पराप्रभवो वंशः। (सा. घ. स्वो. टी. वस्त्र, माल्य, पुस्तकवाचन प्रादि एवं पूजा को तथा २-२०)।। बहत परिवार को देखकर मोर लोगों के द्वारा की जो जिनदेव को ही अपना इष्ट देव मानते हैं, वे जाने वाली प्रशंसा को सुनकर प्राणघारणस्वरूप जैन कहलाते हैं। उनके कुल को-पूर्वपुरुषों की जीवित के विषय में जो जीवित रहना उत्तम है, परम्परा से उत्पन्न वश को-जैन कल कहते हैं। क्योंकि भोजन का परित्याग कर देने पर भी मेरे
जैन लिग-जघजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं प्राधय से यह वैभव दिख रहा है' इस प्रकार की अभिलाषा होती है उसे जीविताशंसाप्रयोग कहते
सुद्धं । रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्म हवदि लिगं ।। हैं। यह सल्लेखना का एक प्रतिचार है।
मुच्छार भविमुत्त जुत्त उवजोग-जोगसुद्धीहि । लिगं
ण परावेक्ख प्रपुणब्भवकारणं जेण्हं ।। (प्रव. सा. जुगुप्सा-१. यदुदयादात्मदोषसंवरणं परदोषा
३, ५-६) । विष्करणं सा जुगुप्सा। (स. सि. ८-१) । २..
सिद्धि का गमक लिग दो प्रकार का है बहिरंग इन्द्रियाणां च पञ्चानां योऽर्थान् लब्ध्वा मनोरमान् ।
और अन्तरग। उनमें ययाजातरूप-दिगम्बर वेष जुगुप्सते विपुण्यात्मा जुगुप्साकर्मपीडितः ।। (वरांग
--के धारण से उत्पन्न हुमा, शिर और दाढ़ी च. ४-८८) ३. कुत्साप्रकारो जुगुप्सा Xxx
के बालों के लोच से चिह्नित, सर्वसावध की निमात्मीयदोषसवरणं गुगुप्सा । (त. वा. ८, ६, ४) ।
त्तिरूप शुद्धि को प्राप्त, हिसा प्रादि से रहित, तथा ४. चेतनाचेतनेषु वस्तुषु व्यलीककरण जुगुप्सा।
प्रतिकर्म-शरीरसंस्कार-से भी रहित वेष बहिरंग (धा. प्र. टी. १८) । ५. जुगुप्सनं जुगुप्सा। जेसि
लिंग माना जाता है । तथा जो मूर्छा (ममत्व) कम्माणमुदएण दुगुंछा उप्पज्जदि तेसि दुगंछा इदि
एवं प्रारम्भ से रहित, उपयोग-निविकार स्व. सण्णा । (धव. पु. ६, पृ.४८); जस्स कम्मस्स
संवेदन-एवं निविकल्प समाधि की शति से सम्पन्न, उदएण दव्व-खेत्त-काल-भावेसु चिलिसा समुप्पज्जदि
परावलम्बन से विहीन और अपनव-मक्तिप्राप्ति तं कम्मं दुगुंछा णाम । (घव. पु. १३, पृ. ३६१)।
का कारण है; उसे अन्तरंग लिग कहा जाता है। ६. दुग्गंधमलिणगेसु य अभितर बाहिरेसु दन्वेसु । जेण विलीयं जीवे उप्पज्जइ सा दुगुंछा उ ।। (कर्म- जैन शासन--सिद्ध ध्रौव्य-व्ययोत्पादलक्षणद्रव्यसावि.ग.६.)। ७. यदुदयेन शकृदादिबीभत्सपदार्थ. धनम्। जैन द्रव्याद्यपेक्षातः साधनाद्यथशासनम् ॥ भ्यो जुगुप्सते उद्विजते तज्जुगुप्सावेदनीयम् । (कर्म- (ह. पु.१-१)। स्तव. गो. बु. १०, पृ. १६)। ८. यस्योदयेन पुनः जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप लक्षण से युक्त पुरीषादिबीभत्सपदार्येषु जुगुप्सावान् भवति तत् द्रव्य का सापक होकर द्रष्याथिक और पर्यायायिक
जुगुप्सावेदनीयम् । (पर्यसं. मलय. ब. ६१५)। नयों को अपेक्षा से सावि और अनादि भी है, वह .. पदव्याशासनः शुभमशुभ वा वस्तु जुगुप्सते प्रमाणसिक मतगनशासन कहलाता है।
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