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________________ चञ्चलत्व] ४३१, जैन-लक्षणावली [चतुर्थ असत्य इधर-उधर घूमने को चंक्रमण कहते हैं । क्षयोपशमात् चतुर्विज्ञानभाजः चतुरिन्द्रियाः।xx चञ्चलत्व-चञ्चलत्व कुत्राप्यवस्थितचित्तत्वा- xचतुरिन्द्रियाणां जातिनाम चतुरिन्द्रियजातिनाम । भावः । (योगशा. स्वो. विव. २-८४)। (कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. १७)। ३. यदुदयाज्जचित्त की कहीं पर भी स्थिरता के न रहने का नाम न्मी चतुरिन्द्रिय इत्यभिधीयते तच्चतुरिन्द्रियजाति. चञ्चलत्व या चञ्चलता है। नाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११)। चण्डालोक-चण्डः क्रोधस्तद्वशादलीकम अनत- १ जिस कर्म के उदय से जीवों के चतुरिन्द्रियरूप से भाषणं चण्डालीकम् । भयालीकाद्यपलक्षणमेतत् । समानता होती है उसे चतुरिन्द्रिय जातिनामकर्म यद्वा-चण्डेनाऽऽलमस्य चण्डेन वा कलितश्चण्डालः, कहते हैं । २ स्पर्शनादि चार इन्द्रियों से होने वाले स चातिक्ररत्वाच्चण्डाल जातिस्तस्मिन भवं चाण्डा- चार ज्ञानों के प्रावरण के क्षयोपशम से जो जीव लिक कर्मेति गम्यते । (उत्तरा. सू. शा. व. १-१०, चार ज्ञानों से युक्त होते हैं वे चतुरिन्द्रिय कहे पृ.४७)। जाते हैं। चतुरिन्द्रियों का जातिनामकर्म चतुरिन्द्रिय चण्ड नाम क्रोध का है, उसके वश जो असत्य जातिनामकर्म कहलाता है।। भाषण किया जाता है वह चण्डालीक कहलाता है। रिन्द्रिय जीव-१. फासिदियादिच उर्हि इंदिअथवा-क्रोध के कारण वह कलंकित होता है एहिं जुत्तो जीवो चतुरिंदिनो णाम । (धव. पु. ७, चण्ड (क्रोध) से यक्त होने से उसे पृ. ६५) । २. एते स्पर्शन-रसना-घ्राण-चक्षरिन्द्रियाचण्डाल कहा जाता है। इस प्रकार अतिशय र वरणक्षयोपशमात श्रोत्रेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रियाकर्म के कारण चण्डाल जाति प्रसिद्ध हुई। इस वरणोदथे च सति स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णानां परिच्छेचण्डाल जाति में होने वाले कर्म को चाण्डालिक। त्तारश्चतुरिन्द्रिया अमनसो भवन्तीति । (पंचा. कहा जाता है। का. अमृत. व. ११६)। चतरङ्ग-जल्प-चत्वारि वादि-प्रतिवादि-प्राश्निक- १ स्पर्शन प्रादि चार इन्द्रियों से युक्त जी परिषद्बललक्षणानि अङ्गानि यस्य स चतुरनो रिन्द्रिय कहलाता है । २ स्पर्शन, रसना, घ्राण और जल्पः। (सिद्धिवि. व.५, २, पृ. ३१३, पं. चक्षइन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम से तथा श्रो १२-१३)। न्द्रियावरण और नोइन्द्रियावरण कर्म का उदय होने वादिबल, प्रतिवादिबल, प्राश्निकबल और परिषद- पर स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण के जानने वाले जीवों बल इन चार अङ्गों से युक्त जल्प को चतुरङ्ग-जल्प को चतुरिन्द्रिय कहते हैं । वे मन से रहित कहा जाता है। होते हैं। चतुरस्रनाम-१. जस्सुदएणं जीवे चउरंसं नाम चतुरिन्द्रियलब्धि- जिब्भा-फास-घाण चक्खिदिोड संठाणं । तं चउरसं नाम xxx ॥ (कर्म- यावरणाणं खग्रोवसमेण समुप्पण्णा सत्ती चउरिदियवि. ११३)। २. चतुरस्र चतुष्कोणं । (संग्रहणी लद्धी । (घव. पु. १४, पृ. २०) । दे. वृ. २७२)। जिह्वा, स्पर्श, घ्राण और चक्षु इन्द्रियावरणों के १ पैर के अंगठे से लेकर शिर के बालों तक जितना क्षयोपशम से जो शक्ति उत्पन्न होती है उसका ऊंचाई का प्रमाण हो उतना ही प्रमाण दोनों नाम चतुरिन्द्रियलब्धि है। भजात्रों के फैलाने पर तिरछा भी हो, इसे चतुरस्र निगोद-जे देव-णे रइय-तिरिक्ख-मणुस्सेकहा जाता है। जिस कर्म का उदय होने पर इस सुप्पज्जियूण पुणो णिगोदेसु पविसिय अच्छंति ते चदुप्रकार के प्राकार वाला जीव का शरीर होता है गइणिगोदा भण्णंति । (धव. पु. १४, पृ. २३६)। उसे चतुरस्र नामकमै कहते हैं।। जो निगोद जीव देव, नारकी, तियंच और मनुष्यों चतुरिन्द्रियजातिनाम-१. जस्स कम्सस्स उद- में उत्पन्न होकर पुनः निगोद जीवों में प्रविष्ट एण जीवाणं चउरिदियभावेण समाणत्तं होदि तं होते हैं वे चतुर्गतिनिगोद कहलाते हैं । कम्मं चउरिदियजादिणामं । (धव. पु. ६ पृ. ६८)। चतुर्थ असत्य-देखो असत्य (चतुर्थ)। गहित२. चतुर्णा स्पर्शन-रसना घ्राण-चक्षुर्ज्ञानानाम् आवरण• मवद्यसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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