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दुष्ट]
५२५, जैन-लक्षणावली [दुष्प्रयुक्तकायक्रिया अपने में वर्तमान क्षारता प्रादि गण के कारण जो प्रतिलेखनं जीवप्रमादमन्तरेण दष्प्रतिलेखसंयमः । धान्य के उत्पादन में असमर्थ रहती है उसे दुष्टि (मूला. वृ. ५-२२०)। कहा जाता है।
भली भांति प्रमार्जन न करके इस प्रकार से प्रमार्जन दुष्ट-दुष्टः कषायविषय[विष] दूषितः । (प्राचा. करना कि जिससे जीवों का विघात हो अथवा दि. पृ. ७४)।
उन्हें पीड़ा पहुंचे, इसका नाम दुष्प्रतिलेख है। कषायरूप विष से दूषित मनुष्य को दुष्ट कहते हैं। उसका संयमन करना-प्रयत्नपूर्वक सावधानी से दुष्पक्वाहार-१. असम्यक्पक्वो दुःपक्वः । (स. प्रतिलेखन करना, इसे दुष्प्रतिलेखसंयन कहा सि. ७-३५)। २. दुष्पक्वास्त्वर्धस्विन्नाः। (श्रा. जाता है। प्र. टी. २८६)। ३. असम्यक् पक्वो दुष्पक्वः ।
- दुष्टमुभ्रान्तचेतसः प्रत्यूपेक्षणं अन्तस्तण्डुलभावेनातिक्लेदनेन वा दुष्ठ पक्व पाहारो
। (श्रा. प्र. टी.३२३)। दुष्पक्व इत्युच्यते । (त. वा. ७, ३५, ६)।
व्याकुलचित्त होकर देखी गई भूमि पर शय्या व ४. दुष्पक्वं मन्दपक्वमभिन्नतन्दुल फल-लोष्ट-यव
संस्तर विछाना और मल-मत्रादि का क्षेपण करना, गोधूम-स्थूलमण्डककण्डुकादि, तस्याभ्यवहारः ऐहिक
यह दुष्प्रत्युपेक्षण नाम का प्रोषधोपवास का एक प्रत्यवायकारी यावता वांशेन सचेतनस्तावता पर
अतिचार है। लोकमप्युपहन्तीति । (त. भा. सिद्ध. वृ.७-३०)।
दुष्प्रमुष्टदोष-पालोक्याऽसम्यक् प्रतिलिख्य तद् ५. सान्तस्तन्दुल भावेनातिक्लेदनेन वा दुष्टः पक्वो
गृहृतो निक्षिपतो वा तृतीयो दुष्प्रमृष्ट संज्ञो दोषः । दुष्पक्वाहारः । (चा. सा. पृ. १३)। ६. तथा
(भ. प्रा. मूला. ११९८)। दुष्पक्वो मन्दपक्वः, स चासाहारश्च दुष्पक्वाहारः ।
देखकर भलीभांति प्रमार्जन न करते हए किसी स चार्घस्विन्नपृथुक-तन्दुल-यव-गोघूम-स्थूलमण्डक
वस्तु के उठाने या रखने को दुष्प्रमृष्टदोष कहते कर्कटकफलादिरैहिकप्रत्यवायकारी, यावता चांशेन सचेतनस्तावता परलोक मुपहन्ति, पृथकादेर्दष्पक्वतया है। यह प्रादाननिक्षेपसमिति का तीसरा दोष है। सम्भवत्सचेतनावयत्वात्, पक्वत्वेनाचेतन इति भुजा- दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण-- दुष्प्रमृष्ट मुपकरणादि नस्यातिचारः पञ्चमः । (योगशा. स्वो. विव. निक्षिप्यमाणं दुष्प्रमृष्ट निक्षेपाधिकरणम्, स्थापनाधि. ३-१८)। ७. असम्यक् पयो दुःपक्वः अस्विन्न:, करणं वा दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरणम्। (भ. प्रा. प्रतिक्लेदनेन वा दुष्ट: पक्वो दग्धपक्वः दुःपक्वः, विजयो. ८१४)। तस्य पाहारः दुःपक्वाहारः। (त. वृत्ति श्रुत. ७, रखे जाने वाले उपकरणादि के अच्छी तरह प्रमा३५) । . पाहारं स्निग्धग्राहिश्च (?) दुर्जरं जठ- जन किये बिना या असावधानी से प्रमार्जन करते राग्निना । असंख्यातवतस्तस्य दोषो दुष्पक्वसंज्ञकः ।
हुए रख देने को अथवा जहां उन्हें स्थापित करना (लाटीसं. ६-२१८)।
है उस स्थान का प्रमार्जन न करके ही स्थापित १ ठीक से न पके हुए प्राहार को दुष्पक्वाहार कहते करने को दुष्प्रमृष्ट निक्षेपाधिकरण कहते हैं। हैं। २ प्राधे पके हुए पाहार का नाम दुष्पक्वाहार दुष्प्रयुक्तकायक्रिया-१. प्रमत्तसंयतस्याने कर्तव्य. है। ६ मन्द पके हुए (अधपके) आहार को तासु बहुप्रकारा दुष्प्रयोगकायक्रिया । (त. भा. सिद्ध. दुष्पक्वाहार कहते हैं। जैसे-अधपके पृथुक (शाक- व.६-६)। २. दुष्प्रयुक्तस्य दुष्टप्रयोगवतो दप्र. विशेष), चावल, जौ, गेहूं, स्थूलमण्डक (मोटी णिहितस्येन्द्रियाण्याश्रित्गेष्टानिष्ट बिषयप्राप्ती मनाक रोटी ?) और ककड़ी प्रादि जो स्वास्थ्य के लिए संवेग-निर्वेदगमनेन तथा अनिन्द्रिमाश्रित्याशुभमनः हानिकारक है ऐसे दष्पक्व माहार के ग्रहण करने संकल्पद्वारेणापवर्गमागं प्रति दर्व्यवस्थितस्य पर दुष्पक्बाहार नाम का भोगोपभोगपरिमाणवत प्रमत्तसंयतस्येत्यर्थः, कायक्रिया दुष्प्रयुक्तकायक्रिया। का अतिचार होता है।
(स्थाना. अभय. व. २-६०, पृ. ३८) । दुष्प्रतिलेखासंयम- दुःप्रतिलेखो दुष्ठु प्रमार्जनं ३. दुष्टं प्रयुक्तं प्रयोगः कायादीनां यस्य स दाप्रथक्तः, जीवघात-मर्दनादिकारकम, तस्व संननं यत्नेन तस्य कायिकी दुःप्रयुक्तकायिकी, इयं प्रमत्तस्यापि
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