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देशव्यतिरेक] ५३६, जैन-लक्षणावली
[देशसत्य प्रावि का वचन ही तत्त्व (यथार्थ) है, इस प्रकार १ प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने से पूर्ण मिथ्यामत की प्रशंसा करना, यह देशविषयक संयम तो नहीं होता, पर स्तोक (देशतः) व्रत होता मिथ्यादृष्टिप्रशंसा है।
है, इसी से पांचवें गुणस्थानको देशविरत कहा देशव्यतिरेक-स यथा चको देशः स भवति नान्यो जाता है। ।। भवति स चाप्यन्यः । सोऽपि न भवति स देशो देशवती-यश्च[श्चा-प्रत्याख्यानावरणसंज्ञिद्वितीयभवति स देशश्च देशव्यतिरेकः ॥ (पंचाध्या. कषायक्षयोपशमे जाते सति पृथिव्यादिपञ्चस्थावरवधे १-१४७)। .
प्रवृत्तोऽपि यथाशक्त्या त्रसवधे निवृत्तः स पञ्चमजो एक देश है वह वही है, दूसरा नहीं है, और जो
गुणस्थानवर्ती श्रावकः। (बृ. द्रव्यसं. टी. ४५)। दूसरा देश है वह दूसरा ही है, अन्य नहीं है। इस
अप्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम होने पर प्रकार के व्यतिरेक को देशव्यतिरेक कहते हैं।
पृषिवी प्रादि पांच प्रकार के स्थावरों के घात में देशवत (एक गुरगवत)-देखो देशविरतिव्रत ।
प्रवृत्त होता मा भी जो यथाशक्ति त्रस जीवों की १. देशवतं नाम अपवरक-गृह-ग्रामसीमादिषु यथा- सा से विरत रखतावरगावी
. शक्ति प्रविचाराय परिमाणाभिग्रहः। तत्परतश्च स्थानवर्ती) श्रावक कहलाता है। (सर्वभूतेष्वर्थतोऽनयंतश्च) सर्वसावद्ययोगनिक्षेपः ।
देशशंका-१. तत्थ देससंका जहा समाणे जीवत्ते (त. भा. ७-१६)। २. देशे भागेऽवस्थापनं प्रतिदिनं
कहमेस भविप्रो इमो अभविउ ति, ण पूण चितेइ प्रतिप्रहरं प्रतिक्षणमिति xxx दिपरिमाण
जहा भावा हे उगेज्झा अहेतुगेज्झा य, तत्थ हेउगेज्झा स्यैकदेशो देशस्तद्विषयं व्रतं देशनियमस्तच्च प्रयो
जहा जीवस्स अस्थित्तं एवमादी, अहेउगेज्झा जहा जनापेक्षमेकादिदिक्कं सर्वदिक्कम् । (त. भा. हरि.
भविया अभविया य, (केवलि) नेयो भावोत्ति, वृ.७-१६)।
एसा देससंका । (दशवै. च. २, पृ.९५) । २. देश१ अपवरक (गह का एक भाग), गह और ग्राम की
शङ्का देशविषया यथा किमयमात्मासंख्येयप्रदेशात्मकः सीमादिक में यथाशक्ति गमनादि के लिए-उसके
स्यादथ नि:प्रदेशो निरवयवः स्यादिति । (श्रा. प्र. नियमनार्थ-परिमाण का नियम करना, यह देश
- टी. ८७)। ३. देशशङ्का एकैकवस्तुधर्मगोचरा। व्रत कहलाता है। कृत परिमाण के बाहिर प्रयोजन व
(योगशा. स्वो. विव. २-१६) । उसके बिना भी समस्त प्राणियों में पूर्ण सावनयोग
१ जीवत्व के समान होने पर यह भव्य है और का परिहार हो जाता है, यह इस व्रत का फल है।
यह प्रभव्य है, ऐसा क्यों; इस प्रकार की शंका देशवत (पंचम गुणस्थान)-१. पच्चक्खाणुदयादो संजमभावो ण होदि णवरि तु। थोववदो
देशशंका कही जाती है। वह यह विचार नहीं होदि तदो देशवदो होदि पंचमनो ॥ (गो. जी.
करता कि कुछ भाव हेतु से ग्राह्य हैं और कुछ बिना
हेतु के, उनमें हेतुग्राह्य जैसे जीव के अस्तित्व प्रावि ३०)। २. सम्यग्दृष्टि: सन् भूमिरेखादिसमानक्रोघादिद्वितीयकषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेने- भाव । अहेतुग्राह्य जैसे भव्यत्व-प्रभव्यत्व, ये भाव कदेशरागादिरहितस्वाभाविकसुखानुभूतिलक्षणेष बहि. कंवलज्ञानगम्य हैं। विषयेषु पुनरेकदेशहिंसानुतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहनिवृत्ति- देशसत्य-१. ग्राम-नगर-राज-गण-पाखण्ड लक्षणेषु एकादशनिलयेषु वर्तते स पञ्चमगुणस्थान- कुलादिधर्माणामुपदेष्ट्ट यद्वचस्तद् देशसत्यम् । (त. वर्ती श्रावकः। (बृ. द्रव्यसं. टी. १३)। ३. प्रत्या- वा. १, २०, १२; धव. पु. १, पृ. ११८ चा. सा. ख्यानावरणकषायाणां सर्वघातिस्पर्धकोदयाभावलक्षणे पृ. ६)। २. यद् ग्राम-नगराचार-राज-धर्मोपदेशक्षये तेषामेब सदवस्थालक्षणे उपशमे च देशघाति- कृत् । गणाश्रमपदोद्धासि देशसत्यं त तमा स्पर्घ कोदयादुत्पन्नत्वाद् देशसंयमः क्षायोपशमिकः। (ह.पु. १०-१०५)। ३. सर्वदेशकवाग देशसत्य(गो. जी. म. प्र. ३०)। ४. देशेन एकदेशेन प्रस- मोदमपाकवाक् । यथा वृत्त्या व्रतो ग्राम इति ग्रामावघनिवृत्त्याश्रयेण संयतो विरतो देशसंयतः। (गो. विवर्णनम् । (माचा. सा. ५-३३) । जी. जी. प्र. ३१) ।
१ ग्राम, नगर, राजा, गण, पाखण्ड, जाति और कुल
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