________________
जिनमुद्रा
४६२, जन-लक्षणावल
[जिह्वन्द्रियव्यञ्जनावग्रह
सुर-मणुएहिं पूजिदो णाणी। प्रदृद्धकम्मरहिदो सो जिनरूपता-देखो जिनमुद्रा। त्यक्तचेलादिसङ्गदेप्रो तिहयणे सयलो ।। जो कल्लाणसमग्गो अइसय- स्य जनीं दीक्षामुपेयुषः । धारण जातरूपस्य यत्त चउतीसभेदसंपुण्णो । वरपाडिहेरसहिदो सो देवो त्स्याज्जिनरूपता ॥ अशक्यघारणं चेदं जन्तूनां होदि सव्वण्हू ॥ (जं. दी. प. १३, ८७-८८)। कातरात्मनाम् । जैन निःसङ्गतामुख्यं रूपं धीरैनि७. दसग्रदोस रहियो सो देवो णत्थि संदेहो । (नि. षेव्यते ॥ (म. पु. ३८, १६०-६१); ततोऽस्य सा.व. ६ उद्.)। ८. निविकल्पश्चिदानन्दः परमेष्ठी जिनरूपत्व मिष्यते त्यक्तवाससः । धारणं जातरूपस्य सनातनः। दोषातीतो जिनो देव: xxx॥ युक्ताचाराद् गणेशिनः ।। (म. पु. ३६, ७८)। (रत्नमाला. ७)। ६. दोषो रागादिचिदभाव: १ वस्त्रादि परिग्रह को छोड़ कर जैनी दीक्षा के स्यादावरणं च कर्म तत् । तयोरभावोऽस्ति निःशेषो साथ दिगम्बर वेष को धारण करना, यह जिनयत्रासो देव उच्यते ॥ (पंचाध्या. २-६०३; लाटी- रूपता या जिनमुद्रा कहलाती है। सं. ४-१२५)।
जिवनचन-सर्वज्ञानां सर्वदर्शिनां वीतरागदबानां १ जो धर्म, अर्थ, काम और ज्ञान को देता है वह वचनं जिनवचनम् । (भ. प्रा. विजयो. ३)। देव कहलाता है। जिसके पास अर्थ, धर्म और सर्वज्ञ, सर्वदर्शी व वीतरागी जिन देव के वचनों का सर्वसंग परित्यागस्वरूप प्रव्रज्या है वही इनको दे जिनवचन कहते हैं। सकता है। ऐसा देव-जिन देव-मोह से रहित जिह्वेन्द्रिय-फासिदियावरणसव्वधादिफयाणमु(वीतराग) होता हा भव्य जीवों के अभ्युदय- दयक्खपण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदयोवसमेण इस लोक सम्गन्धी उत्कृष्ट सुख के साथ मुक्ति- वा देसघादिफद्दयाणमुदएण जिभिदियावरणस्स सुख-का कारण होता है। ३ जो कल्याणरूप सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण अतिशयों से सम्पन्न होकर केवलज्ञान दर्शनादि रूप अणुदोबसमेण वा देसघादिफयाणमदएण चक्खुनौ केवललब्धियों से विभूषित होता हा पाठ सोद-धाणिदियावरणाणं देसधादिफयाणमुदधक्खप्रतिहायो से अधिष्ठित होता है उसे देव माना एण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदोवसमेण वा गया है।
सम्वधादिफयाणमुदएण खग्रोवसमियं जिभिदियं जिनमुद्रा-१. दढसंजममुद्दाए इंदियमुद्दा कसाय- समुप्पज्जदि । (धव. पु. ७, पृ. ६४)। दढमहा। मुद्दा इह णाणाए जिणमुद्दा एरिसा स्पर्शन-इन्द्रियावरण और जिहा-इन्द्रियावरण के भणिया ।। (बोधप्रा. १९)। २. चत्तारि अंगुलाई सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय से, उन्हीं के सदवपुरो ऊणाई जत्थ पच्छिमनो। पायाणं उस्सग्गो स्थारूप उपशम अथवा अनुदयरूप उपशम से, और एसा पुण होइ जिणमुद्दा ॥ (चैत्यवं. १६)। ३. देशघाती स्पर्धकों के उदय से तथा शेष घ्राण प्रादि चतुरङ्गुलमग्रतः पादयोरन्तर किञ्चिन्यूनं च पृष्ठ इन्द्रियावरणों के देशघाती स्पर्धकों के उदयक्षय व तः कृत्वा समपादकायोत्सर्गेण जिनमुद्रा । (निर्वाणक. उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम अथवा अनुदयरूप १६, ६, ३, पृ. ३३)।
उपशम और सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से जो रस१ दृढ़ संयममुद्रा और ज्ञानमुद्रा के साथ इन्द्रिय- ग्रहण में समर्थ क्षायोपशमिक इन्द्रिय उत्पन्न होती मद्रा-जितेन्द्रियता-और कषायमद्रा--क्रोधादि है उसका नाम जिह्वा-इन्द्रिय है। कषायों के प्रभाव- का नाम जिनमुद्रा है। अभि- जिह्वन्द्रियव्यञ्जनावग्रह - तित्त कडुव कसायांप्राय यह है कि जिस वेष में इन्द्रियों और कषायों बिल-महुरदव्वाणि जिभिदियविसयो। तेसु दम्वेसु को जीतकर संयम में दृढ़ होते हुए शानाभ्यास बउलपत्तसंठाणट्टिदजिभिदिएण बद्ध-पुट-पविग्रंगांमें प्रवृत्ति होती है उसे जिनमुद्रा (जिनलिंग) गिभावगदसंबंधमुवगदेसु जं रसविण्णाणमुप्पज्जदि कहते हैं। २ दोनों पांवों के मध्य में प्रागे चार । सो जिभिदियवंजणोग्गहो। (धव. पु. १३, पृ. अंगल का और पीछे इससे कुछ कम अन्तर करके २२५) । स्थित होते हुए जो उत्सर्ग (कायोत्सर्ग) किया तीखे, कडवे, कषायले, आम्ल और मधुर रस वाले जाता है, यह जिनमुद्रा होती है ।
द्रव्य जिह्वा-इन्द्रिय के विषय हैं। बद्ध, स्पृष्ट पार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org