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तंजससमुद्घात ]
वामस्कन्धान्निर्गत्य वामप्रदक्षिणेन हृदये निहितं विरुद्ध वस्तु भस्मसात्कृत्य तेनैव संयमिना सह स च भस्म व्रजति द्वीपायनवत् श्रसाव शुभस्तेजः समुद्धातः । लोकं व्याधि-दुभिक्षादिपीडितमवलोक्य समुत्पन्नकृपस्य परमसंयमनिधानस्य महर्षेर्मूलशरीरमत्यज्य शुभ्राकृतिः प्रागुक्तदेहप्रमाणः पुरुषो दक्षिणप्रदक्षिणेन व्याधिदुभिक्षादिकं स्फोटयित्वा पुनरपि स्वस्थाने प्रविशति असौ शुभरूपस्तेजः समुद्घातः । ( बु. द्रव्यसं. १०, पृ. २१) । ४. तेजसेन हेतुभूतेन समुद्घातस्तेजससमुद्घातः तेजसशरीरनामकर्माश्रयः । (जीबाजी. मलय. वू. १३. पू. १७ ) । १ जीवों के अनुग्रह और निग्रह करने में समर्थ ऐसे तैजसशरीर के कारणभूत समुद्धात को तैजससमुद्घात कहते हैं । ३ अपने मन को श्रनिष्ट प्रतीत होने वाले किसी कारणान्तर को देखकर जिसे क्रोध उत्पन्न हुआ है ऐसे संयम के धारक महामुनि के मूल शरीर को न छोड़कर सिन्दूरसमूह के समान प्रभा वाला, बारह योजन प्रमाण दीर्घ, सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण मूल विस्तार से व नौ योजन प्रमाण अग्र विस्तार से सहित घर काहल ( एक बाजा) के समान प्राकृति का धारक जो पुरुष उक्त मुनि के बायें कन्धे से निकल कर वाम प्रदक्षिण से मन में स्थित विरुद्ध वस्तु को निर्मूल जलाकर उसी संयमी मुनि के साथ स्वयं भी भस्मसात् हो जाता है— जैसे द्वीपा यन नामक मुनि, यह प्रशुभ तेजससमुद्धात है । लोक को रोग या प्रकाल से पीड़ित देखकर दयार्द्र हुए संयमी महर्षि के मूल शरीर को न छोड़कर धवल प्राकृति वाला पूर्वोक्त शरीर के प्रमाण पुरुष दक्षिण- प्रदक्षिण से उक्त रोग व अकाल आदि को नष्ट करके फिर भी अपने स्थान में प्रविष्ट हो जाता है, यह शुभरूप तजससमुद्घात है । तैर्यग्योन - देखो तिर्यग्योनि । १. क्षुत्पिपासाशीतोष्णादिकृतोपद्रवप्रचुरेषु तिर्यक्षु यस्योदयाद् बसमं ततैयंग्योनम् । क्षुत्पिपासा - शीतोष्ण - दंशमशकादिविविधव्यसनविधेयीकृतेषु तिर्यक्षु यस्योदयाद् वसनं भवति तत्र्त्तर्यग्योनमायुरवगन्तव्यम् । (त. वा. ८, १०, ६) । २. क्षुत्पिपासाशीतोष्ण वातादिकृतोपद्रव प्रचुरेषु तिर्यक्षु यस्योदयाद् वसनं तत्तैर्यग्योनम् । (त. इलो. ८-१० ) ।
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जैन - लक्षणांवली
[त्यक्तदेह
१ जिस कर्म के उवय से भूख प्यास, शीत श्रौर उष्ण आदि के अनेक उपद्रवों के सहने वाले तियंचों में रहना पड़ता है उसे तैर्यग्योन ( तिर्यगायु ) कहते हैं ।
तोरण - पुराणं पुराणं [ गोपुराणं] पासादाणं बंदणमालबंघणट्ठ पुरदो दुविदरुक्खविसेसा तोरणं णाम । (घव. पु. १४, पृ. ३९ ) । नगरगत गोपुरों के प्रासादों के वन्दनमाला बांघने के लिए जो वृक्षविशेष ( कदलीस्तम्भ आदि) स्थापित किये जाते हैं वे तोरण कहलाते हैं । तौष्टिक - तुष्टिर्दत्तवतो यस्य ददतश्च प्रवर्तते । देयासक्तमतेः शुद्धास्तमाहुस्तौष्टिकं जिनाः ॥ (प्रमित. आ. ६ - ५ ) ।
जो पूर्व में दे चुका है श्रथवा वर्तमान दे रहा है उसके देय द्रव्य में अनासक्त बुद्धि होने से सन्तोष रहता है, इसी से उसे तौष्टिक कहा जाता है । त्यक्तकृत्य - चियत्ते त्ति- संजमा हिकारियाणि छड्डेऊण सेवइ स त्यक्तकृत्यः । ( जीतक. चू. १, पू. ३, पं. १८ ) ।
जो संयमोचित कार्यों को छोड़कर सेवन करता है, अर्थात् रोगादि के कारण या असमर्थ अवस्था में अपवादरूप से जिनका सेवन करना पड़ा उनको यदि नीरोग व समर्थ होते हुए फिर भी सेवन करता है, तो वह त्यक्तकृत्य कहलाता है ।
त्यक्तदेह – १. त्यक्तदेहम् — जीवसंसर्गसमुत्थशक्तिजनिताहारादिपरिणामप्रभवपरित्यक्तोपचयम् । x X X उक्तं च वृद्धैः - आहारसत्तिजणिताऽऽहारेसुपरिणामजोवचयसुण्णं । भण्णइ हु चत्तदेहं देहोवरश्रोत्ति एगट्ठा ||४|| ( अनुयो. हरि वू. पू. १४) । २. जीविद मरणासाहि विणा सरूवोवलद्धिणिमित्तं व ( ? ) चत्त बज्भंत रंगपरिग्गहस्स कदलीघादेणियरेण वा पदिदसरीरं चत्तदेहमिदि । ( धव. पु. १, पृ. २६); भत्तपच्चक्खाणि गिणि पानवगमण विहाणेहि छंडिदसरीरो साहू XXX चत्तदेहो णाम । ( धव. पु. ६. पू. २६९ ) । ३. श्रायुषो भवमवेत्य प्रात्मनंव यत्यक्तं तत्त्यवतशब्देनोच्यते । (भ. श्री. विजयो. टी. ७५३ ) । ४. घादेण अघादेण व पडिदं चागेण चसमिदि । (गो. क. ५८ ) । ५. त्यक्तं भक्तादिकत्यागैर्घाताघातगतात्मकम् । ( श्राचा. ε-१२) । ६. त्यक्तं प्रायोपगमनेङ्खिनी - भक्तप्रत्या
सा.
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