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कालक्रमोत्तर ३४८, जैन-लक्षणावली
[कालपरिक्षेप सोलह वर्ष की आयु वाले से सौ वर्ष की आयु लाता है। २ जिस स्वाध्यायकाल में शास्त्र का वाला 'पर' और सौ यर्ष की आय वाले से सोलह पठन, परिवर्तन–विस्मत न होने देने के लिए पुनः वर्ष की आयु वाला 'अपर' कहा जाता है। इस पुन: भावागम का परिशीलन-और व्याख्यान प्रकार काल के प्राश्रय से जो पर-अपर का व्यव- प्रादि किया जाता है उस काल को भी कारण में हार होता है, उसे काल-कृत परत्व-अपरत्व कहा कार्य के उपचार से कालज्ञानाचार कहा जाता है। जाता है।
कालदोष-कालदोषः अतीतकालव्यत्ययः। यथा कालक्रमोत्तर - कालत एकसमयस्थितेप्सिमय- रामो वनं प्राविशदिति वक्तव्ये विशतीत्याह । (प्राव. स्थितिः ततोऽपि त्रिसमयस्थितिः, एवं यावदसंख्येय- नि. हरि. व मलय. वृ. ८८३)। समयस्थितिः । (उत्तरा. नि.व. १, पृ. ६) । प्रतीत काल के विपरीत प्रयोग को कालदोष कहते काल के क्रम से एक-एक समय की अधिकता से हैं। जैसे-'राम वन में प्रविष्ट हुए' इस विवक्षा होने वाली स्थितियों को काल-क्रमोत्तर कहते हैं। में 'राम वन में प्रविष्ट होते हैं' ऐसा कहना। यह जैसे-एक समय स्थिति से दो समय स्थिति और दो ३२ सूत्रदोषों में २१वा दोष है। समय स्थिति से तीन समय स्थिति, इस प्रकार कालनिधि--१. काले कालण्णाणं भव्व-पुराणं च असंख्यात समय स्थिति तक जानना चाहिए। तिसु वि वंसेसु । सिप्पसयं कम्माणि पयाए हिसकाल-चतुर्विंशति-कालश्च [लचतुर्विशतिश्चतु. कराणि ॥ (जम्बूद्वी. ६६, गा. ६, पृ. २५६; प्रव. विशतिः समयादयः, एतत्काल स्थिति वा द्रव्यं काल- सारो. १२२४) । २. कालनामनि निधौ कालज्ञानम् चतुर्विशतिः। (प्राव. भा. मलय. वृ. १९२, पृ. -सकलज्योतिःशास्त्रानुबन्धि ज्ञानम्-तथा जगति ५६०)।
त्रयो वंशा:-वंशः प्रवाहः प्रावलिका इत्येकार्थाः, चौबीस समयों आदि (पावली व महर्त मादि) को तद्यथा-तीर्थंकरवंशश्चक्रवर्तिवंशो बलदेव-वासुदेवअथवा इतने समय स्थित रहने वाले द्रव्य को काल- वंशश्च । तेषु विष्वपि वशेषु यद् भाव्यं यच्च पुराणचतुविशति कहते हैं
मतीतमुपलक्षणमेतद् वर्तमानं शुभाशुभं तत् सर्वकालचार-कालस्तु यस्मिन् काले चरति यावन्तं मत्रास्ति, इतो महानिधितो ज्ञायत इत्यर्थः। शिल्पवा कालं स कालचारः । (प्राचारां. शी. वृ. १, ५, शतं घट-लोह-चित्र-वस्त्र-नापितशिल्पानां पञ्चाना२४६, पृ. १८३)।
मपि प्रत्येक विंशतिभेदत्वात्, कर्माणि च कृषिचार, चर्या और चरण-ये समानार्थक शब्द हैं। वाणिज्यादीनि जघन्य-मध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नानि जिस काल में या जितने काल पाचरण किया जाता त्रीण्येतानि प्रजाया हितकराणि निर्वाहाभ्युदयहेतुहै उसे कालचार कहते हैं।
त्वात् । एतत्सर्वमत्राभिधीयते । (जम्बूद्वी. शा.व. काल जघन्य-कालजहण्णमेगो समझो। (धव. पु. ६६, पृ. २५८) । ३. भविष्यद्भुतयोनिं वत्सरां११, पृ. ८५)।
स्त्रीन सतोऽपि च । कृष्यादीनि च कर्माणि शिल्पाकालज्ञानाचार-१. साम्प्रतं ज्ञानाचारमाह- न्यपि च कालतः।। (त्रि. श. पु. च. १, ४, ५७६)। काल इति । यो यस्याङ्गप्रविष्टादेः श्रुतस्य काल २ कालनिधि के प्राश्रय से समस्त ज्योतिष शास्त्र उक्तः तस्य तस्मिन्नेव काले स्वाध्यायः कर्तव्यो सम्बन्धी ज्ञान तथा तीर्थकरवंश, चक्रवतिवंश और नान्यदा। (दशवे. हरि. व. ३-८, पृ. १०३)। बलदेव-वासुदेववंश ये जो तीन घंश लोक में प्रवर्त२. काले-स्वाध्यायवेलायां पठन-परिवर्तन-व्याख्या- मान हैं उनमें भविष्य में जो होने वाला है, भूत में नादिक क्रियते सम्यक् शास्त्रस्य यत्स कालोऽपि जो हो चुका है एवं वर्तमान में जो शुभाशुभ चल ज्ञानाचार इत्युच्यते, साहचर्यात्कारणे कार्योपचारा- रहा है उसका भी ज्ञान प्राप्त होता है। इसके अतिद्वा। (मूला. वृ. ५-७२)।
रिक्त कुम्हार, लुहार, चित्रकार, जुलाहा और नाई १अंगप्रविष्ट प्रादि जिस श्रत के स्वाध्याय का जो इनमेंसे प्रत्येककी २०-२० कलानों का तथा वाणिज्य काल कहा गया है उसी में उसका स्वाध्याय करना, प्रादि कर्मों का कथन भी इसमें किया गया है। अन्य काल में न करना; यह कालज्ञानाचार कह- कालपरिक्षेप-वासारत्ते अइपाणियं ति गिम्हे
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