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________________ दोष] ५४३, जैन-लक्षणावली [द्रव्य १ हिंदोले के समान अपने को चल-अचल करके द्रवशील-भासइ दुयं दुयं गच्छए प्रदरिउ व्व अथवा लेट कर वन्दना करने पर दोलायित. दोष गोविसो सरए । सव्वद्दुय-दुयकारी. फुट्टइ व ठिो का भागी होता है। २ अथबा अस्थिर प्रत्यय- वि दप्पेणं ॥ (बृहत्क. १२६६)। स्तुत्य, स्तुति एवं उसके फल विषयक सन्देह-का जो शरद ऋतु के अभिमानी बैल के समान अति शय शीघ्रतापूर्वक विना सोचे-बिचारे बोलता है व दोष-१. अज्ञानादिर्दोषः स्व-परपरिणामहेतुः। जाता है, जो सभी क्रियाओं को बिना विचारे (अष्टश. ४) । २. दोषः . प्रज्ञानादि, अतिशय शीघ्रता से करता है, तथा जो तीव्र अभिxxx अथवा मोहान्त राया दोषाः । (प्रा. मी. मान से स्थित भी रहता है, उसे द्रवशील कहा वसु. व. ४)। जाता है। १ स्व-परपरिणाम जनित प्रज्ञान प्रादि दोष कह- द्रविक-द्रविका नाम राग-द्वेषविनिर्मुक्ता, द्रवः लाते हैं। संयमः सप्तदशविधान: कर्मकाठिन्यद्रवणकारित्वातदोष (वन्दनादोष)-जह वेलबगलिंगं जाणंतस्स विलयहेतुत्वात्, स येषां विद्यते ते द्रविकाः । नमो हवाइ दोषो । निद्धंधसमिय नाऊण वंदमाणे (प्राचारा. शी.. १, ७, ५८, पृ.७०)। धुवो दोसो।। (प्राव. नि. ११३७)। कर्म की कठिनता को विलीन करने के कारण विदूषक मादि विडम्बकों के द्वारा धारण किये गये सत्तरह प्रकार के संयम को द्रव कहा जाता है। साषु के वेष को जानते हुए भी नमस्कार करना इस द्रव के धारक-राग-द्वेष से रहित-जीवों का तथा इसी प्रकार निर्लज्ज पार्श्वस्थ मादि को भी नाम द्रविक है। मानते हुए वन्दना करना, यह वन्दना का दोष है। द्रव्य-१. अपरिच्चत्तसहायेणुप्पादव्वय-धुवत्तसंबद्ध। दोषज दुःख-दोषजं वात-पित्त-कफवैषम्यसम्भू- गुणवं च सपज्जायं जं तं दव्व त्ति वुच्चंति ।। (प्रव. तम् । (नीतिवा. ६-२१, पृ.७३)। सा. २-३)। २. दवियदि गच्छदि ताई ताई सब्भावात, पित्त और कफ की विषमता से उत्पन्न होने वपज्जयाई जं। दवियं तं भण्णते अणण्णभूदंतु वाले दुख को दोषज दुःख कहते हैं। सत्तादो ॥ दब्वं सल्लक्खणियं उप्पादन्वय-धुवत्तअति-१. शरीर-वसनाभरणादिदीप्तिः द्युतिः । संजुत्तं । गुण-पज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ।। (स. सि. ४-२०; त. वा. ४, २०, ४; त. श्लो. (पंचा. का. ६-१०) । ३. सद् द्रव्यलक्षणम् । (त. ४-२०) । २. द्युतिः शरीराभरणादिदीप्तिः । सू. ५-२६); गुण-पर्ययवद् द्रव्यम् । (त. सू. ५, (प्रौपपा. अभय. वृ. ३८, पृ. ८७)। ३. द्युतिः ३८)। ४. गुणर्दोष्यते गुणान् द्रोष्यतीति वा द्रव्यम् । शरीराभरणादिप्रभा। (प. बि. ७-८, पृ.८७)। (स. सि. १-५) । ५. तदुभयं (गुण पर्यायाः) यत्र ४. शरीर-वस्त्राभरणादीनां द्युतिर्दीप्तिः । (त. वृत्ति विद्यते तद् द्रव्यम् । गुण-पर्याया अस्य सन्त्यस्मिन् वा श्रुत. ४-२०)। सन्तीति गुण-पर्यययवत् । (त. भा. ५-३७) । १ शरीर, वस्त्र और प्राभूषण प्रादि को दीप्ति को ६. नयोक्नयकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः । युति कहते हैं। अविभ्राड्भावसम्बन्धो द्रव्यमेकमनेकधा ।। (प्रा. मी. द्यूत-प्रक्षपासादिनिक्षिप्तं वित्ताज्जय-पराजयम् । १०७)। ७. गुणाणमासमो दव्वं । (उत्तरा. २८, क्रियायां विद्यते यत्र सर्व द्यतमिति स्मृतम् ।। (लाटी- ६)। ८. दव्वं पज्जवविउयं दवविउत्ता य पज्जवा सं.२-११४) । त्थि । उप्पाय-ठिइ-भंगा हंदि दविलक्खणं एमं ॥ जिस क्रिया में चौसर के पांसे प्रादि पर निक्षिप्त (सन्मति. १२)। ६. ऋते द्रव्यान्न पर्याया द्रव्यं धन से जय-पराजय होता है उसे द्यूत कहते हैं। बा पर्ययविना। स्थित्युत्पत्तिनिरोधोऽयं द्रव्यलक्षणद्रव-रात्रिचतुःप्रहरैः प्रक्लिन्नप्रोदनो द्रव उच्यते। मुच्यते ॥ (वरांग. २६-५५)। १०. द्रोष्यते (त. वृत्ति श्रुत. ७-३५) गम्यते गुणोष्यति गमिष्यति गुणानिति वा द्रव्यम् । रात्रि के चार प्रहरों में पकाये गये भात को द्रव .xxx अनागतपरिणामविशेष प्रति गृहाताभिकहा जाता है। .. मख्यं द्रव्यम्-यभाविपरिणामप्राप्ति प्रति योग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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