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देह ]
तद्विपरीता करणरहिता या संसारिणां जीवानां गिरिनदीपाषाणवृत्ततादिसंभवत्यथाप्रवृत्तादिकरणसाध्य क्रियाविशेषमन्तरेणापि वेदनानुभवनादिमि: कारणैरुपजायते । तस्याश्च सम्प्रत्यनुयोगों व्यवच्छिन्नः, तद्वेतॄणामभावात् । ( पंचर्स. मलय. वृ. उपश. १ ) ; यत् यस्मात्कारणाद् देशभूताभ्यामेकदेशभूताभ्यां यथाप्रवृत्तापूर्वकरणसंज्ञिताभ्यां करणाभ्यां प्रकृतिस्थित्यादीनां देशमेकदेशं शमयत्युपशमर्यात, श्रतो देशोपशमनाभिधीयते । (पंचसं. मलय. वृ. उपश. ६५) ।
१ देशकरणरूप श्रधःप्रवृत्त श्रोर अपूर्वकरण परि णामों के द्वारा जो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग श्रीर प्रदेश का अल्प मात्रा में उपशम किया जाता है उसे देशकरणोपशमना कहा जाता है ।
देह - देहोऽपि प्रौदारिक- वैक्रियिकाहारकवर्गणागतपुद्गलपिण्डः, कर-चरण- शिरोग्रीवाद्यययवः परिणतो वा । (मूला. वृ. १२-२ ) । औदारिक, वैऋियिक और आहारक वर्गणानों के पुद्गलपिण्ड को देह कहते हैं । अथवा हाथ, पैर, शिर और ग्रीवा आदि श्रवयवस्वरूप से परिणत पुद्गलपिण्ड को देह कहा जाता है ।
५४२, जैन-लक्षणावली
दव - १. योग्यता कर्म पूर्वं वा दैवमुभयमदृष्टम् । ( अष्ट. ८८ ) । २. जमुदग्गं थेवेणं कम्मं परिणमइ इह पयासेण । तं दइवं XXX ॥ ( उपदे. प. ३५०); वहुकम्मणिमित्तो पुण प्रज्भवसानो उ दइवोति ॥ ( उपदे. प. ३५१) । ३. यदुदग्रमुत्कट - रसतया प्राक् समुपार्जितं स्तोकेनापि कालेन परिमि तेन कर्म सर्व्वद्यादि परिणमति फलदानं प्रति प्रह्वीभवति इह जने प्रयासेन राजसेवादिना पुरुषकारेण, तद् दैवं लोके समुद्धृष्यते । ( उपदे. प. मु. वृ. ३५०); अथवा X XX बहु प्रभूतं पुरुषकार माश्रित्य कर्म निमित्तं यत्र स पुनरध्यवसाय इह नञोऽल्पार्थत्वादल्पो व्यवसायः पुनर्देवमिति । यत्र हि कार्यसिद्धावरूपः कर्मणो भावो बहुश्च पुरुषप्रयासस्तत्कार्यं पुरुषकारसाध्यमुच्यते । यत्र पुनरेतद्विपर्ययस्तत् कर्मकृतमिति । ( उपदे. प. मु. वू. ३५१) ।
१ योग्यता अथवा पूर्व कर्म को दैव कहते हैं, जिन्हें अदृष्ट कहा जाता है । २ पूर्वोपार्जित कर्म जो परिमित समय में ही तीव्र अनुभागस्वरूप से साता
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[दोलायित
वेदनीय श्रादिरूप परिणत होता हुआ फल देने के उन्मुख होता है, इसका नाम देव है । श्रथवा पुरुपार्थ की अपेक्षा जिस श्रध्यवसाय में बहुत कर्म निमित्त होता है उसे देव कहा जाता है । दैवकृत-प्रतकितोपस्थितमनुकूलं प्रतिकूलं वा देवकृतम् । (अष्टश. १) । प्रतकित - विना किसी प्रकार के विचारादि के - जो अनुकूल या प्रतिकूल सामग्री प्राप्त होती है वह देवकृत कहलाती है ।
दैवविवाह - १. स देवो विवाहो यत्र यज्ञार्थमृत्विजः कन्याप्रदानमेव दक्षिणा । ( नीतिवा. ३१, ५, पृ. ३७४; व. वि. मु. वृ. १-१२; योगशा. स्वो विव. १-४७, पृ. १४७) । २. तथा च गुरुःकृत्वा यज्ञविधानं तु यो ददाति च ऋत्विजः । समाप्ती दक्षिणां कन्यां देवं वैवाहिकं हि तत् ॥ (नीतिवा. टी. ३१-५) ।
यज्ञ करके उसके समाप्त होने पर याज्ञिक के द्वारा ब्राह्मण को दक्षिणा के रूप में कन्या के देने को देव विवाह कहते हैं ।
दैवसिक -- दिवसेन निर्वृत्तो दिवसपरिणामो वा दैवसिक: । (श्राव. हरि. वृ. ४, पृ. ५७१) दिन के श्राश्रय से या दिन प्रमाण जो प्रतिचार किया जाता है वह देवसिक कहलाता है । दोग्रन्थिकप्राभृत (दोगंधियपाहुड ) - परमाणंदानंद मेत्तीणं 'दोगंधिय' इत्ति ववएसो । तेसि कारणदव्वाणं पि उवयारेण 'दोगंधिय' ववएसो । तत्थ [ परमाणंद- ] श्राणंदमेत्तीणं पटुवणाणुबवत्तीदो तणिमित्तदव्वपट्ठवणं दोगंधियपाहुडं । ( जयध. पु. १, पृ. ३२४) ।
परमानन्द और श्रानन्द मात्र का नाम दोग्रन्थिक है। उनमें चूंकि परमानन्द और श्रानन्द मात्र का प्रस्थापन ( प्रेषण) घटित होता नहीं है, अतएव उनके निमित्तभूत द्रव्यों के प्रस्थापन को दोग्रन्थिकप्राभृत कहा जाता है। यह नोश्रागम की अपेक्षा प्रशस्त भावप्राभूत माना गया है । दोलायित - १. दोलायितं दोलामिवात्मानं चलाचलं कृत्वा शयित्वा वा यो विदधाति वन्दनां तस्य दोलायितदोष: । (मूला. वू. ७ - १०६ ) । २. दोलायितं चलन् कायो दोलावत् प्रत्ययोऽथवा । (धन. घ. ८-१६) ।
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